Tuesday, October 2, 2018

दौर-ए-ज़िन्दगी Final Part

Please read it's first part than you easily be connected with final part of this story. And please concentrate on timings and the flow of story.


APRIL 1993 : ( 25 साल पहले )



रूपेश जी :- "ममता जी! अब मैं बिल्कुल अनाथ हो गया हूँ। माँ की छवि तो मुझे वेसे भी सही से याद नहीं है, बाबूजी ही थे जिन्होंने मुझे माँ और बाप दोनों का प्यार देकर पाल पोस कर बड़ा किआ था। खुद अपना मन मार कर मेरे सपनों को पूरा करने में कोई कसर न छोड़ी। ममता जी! अब मैं पूरी तरह से अकेला हो गया।"


ममता जी :- "संभालिये खुद को, आप ही ऐसे टूट जाएंगे तो बच्चों को कौन संभालेगा। अब होनी को कौन टाल सकता है। आपको याद है, बाबूजी हमेशा क्या कहते रहते थे!!! उन्हें गर्व था आप पर और आपके फैसलों पर, वो मुझसे हमेशा ही कहते थे ,की आपने खुद से ज्यादा हमेशा इस परिवार को एहमियत दी है, आपने खुद से ज्यादा इस परिवार की भलाई के लिए फैसले लिए है। और आपके जैसा बेटा पा कर वो बहुत ही खुश थे, और अभी शायद 2, 3 हफ्ते पहले ही मजाक में ही कह रहे थे, की मैं तुम्हारा नाती या पोता बन कर वापस इसी घर मे आऊंगा, तुम लोगों को छोड़ कर कहीं नही जाऊंगा, इसलिए मेरे मर जाने पर दुखी नहीं, मेरे वापस आने का इंतेज़ार बहुत ही खुशी के साथ करना। चलिये अब आप उठिए और बच्चों के साथ थोड़ा बाहर घूम आईये। आपको भी अच्छा लगेगा और बच्चों को भी। और देखिए मैं आपके लिए क्या लायी हूँ??? आप की सिनेमा के tickets। चलिये तैयार होइए और बच्चों को भी साथ ले जाइए।"


रूपेश जी :- "नहीं ममता जी!! मेरे कहीं भी जाने का मन नही है, और अभी बाबूजी की तेरवीं को  हफ्ता भर ही हुआ है, और मैं ऐसे में सिनेमाहॉल चले जाऊं???"


ममता जी :- "जानती हूँ, लेकिन अभी यही सही है, आपके और बच्चों के लिए। जानती हूँ कि बाबूजी के जाने का दुख है, दुख मुझे भी है, लेकिन यही जीवन की सच्चाई है और इसे नही बदला जा सकता। और अगर बाबूजी होते तो वो भी मेरी बात से सहमत होते। चलिये उठिए, मैं बच्चों को भी तैयार कर देती हूँ, उनका भी मन बदल जायेगा और आपका भी।"



            मैं तेरे उन अनकहे लफ्जों को,
                    दिल की गहराइयों में सुनता चला गया।
           मैं तेरी उन झुकी पलकों को,
                    मन की आंखों से पड़ता चला गया।
           मैं तेरी उन दबी आहों को,
                   रोम-रोम में महसूस करता चला गया।
           तू जो बस कह देता की,
                   मेरा साथ ही अब तेरे आंसुओं की वजह है बन गया।
           मैं फिर भी तेरे हाल-ए-दिल को,
                   इशारे में समझता चला गया। 


OCTOBER 1986 : ( 32 साल पहले )



बाबूजी :- "ले अंजलि मिल ले अपने भाई से, रात भर ठीक से ना तो खुद सोई, ना मुझे ही सोने दिया। बार- बार बस एक ही सवाल, सुबह हो गयी क्या दादू??? कब चलेंगे हस्पताल?? और सुबह से नाक में दम किये हुए है, हलवाई की दुकान खुलने तक का इंतेज़ार नही करने दिया। ले बेटा अब तू ही जाके मिठाई ले आ, और हाँ थोड़ी ज्यादा सी लाना, पूरे हस्पताल में बांटूंगा मै।"


रूपेश जी :- "अरे बाबूजी पैसे रखिये, मैं ला दूंगा अभी, अभी बाजार तो खुलने दीजिये, और मुझे अच्छे से पता है, अंजलि तो बस बहाना है, मन तो आपका भी नही लग रहा होगा घर पर। लीजिये अपनी बेसब्री खत्म कीजिये और अब ले ही लीजिए अपने पोते को अपनी गोद में।"


बाबूजी :- "हाँ लाओ लाओ, इसके इंतेज़ार में ही तो भागते हुए आये है, इसके दादू और दीदी।"


रूपेश जी :- "लीजिये बाबूजी, आप खिलाईये अपने पोते को, तब तक मे कुछ दवाएं और आपकी मिठाई भी देख कर आता हूँ, की मिलने लगी या नही।"


बाबूजी :- "सुन इधर ध्यान से, जैसा अंजलि के वक़्त किया था ना वैसा मत करना, हमें यहाँ दवाई का बोल के खुद वहां सिनेमा देखने बैठ जाये। सुधर जा अब और छोड़ ये सिनेमा जाने की आदत, दो बच्चों का बाप हो गया है अब तू।"



ममता जी :- "अरे आप निश्चिन्त रहिये बाबूजी, आज वेसे भी 3 तारीख है और ये तो 15 तारीख को शाम को जाते है, शायद मेरे बेटे को भी पता था उसके पापा की आदत के बारे में, इसलिए सही समय देख कर आया है वो इस दुनियां में।"


बाबूजी :- "हाँ ये तो तू सही कह रही है बहु, और तू रुक जा मैं जाता हूँ दवाई और मिठाई लेने। अभी बहु को यहाँ किसी की जरूरत पड़ गयी तो, तो तू रुक यहां। ले बहु अब तू संभाल मेरे अर्जुन को, मैं आता हूं बाजार से।"


रूपेश जी :- "अरे वाह बाबूजी आपने तो नाम भी रख दिया, अर्जुन!! बड़ा ही प्यारा नाम है, क्यों ममता जी।"


बाबूजी :- "हाँ और क्या, मुझे तो तेरी आदतें पता हैं ना, बहु की तू चलने नही देगा, और खुद कुछ अब्बू, डब्बू, राजू, पिंकी जैसे कुछ नाम रख देगा मेरे पोते का। इसलिए ये काम तो मुझे ही करना पड़ेगा ना। चलो में आता हूँ, अब तक तो बाजार भी खुल गया होगा शायद। चल अंजलि तू भी चल मेरे साथ, वरना यहां रहेगी तो या तो अपनी माँ को परेशान करेगी या अपनी भाई को।"



क्या यही वो तेरा प्यार था, क्या यही वो तेरा साथ था।।
एक हवा के झोंके से बिखरा हो ताशों का घर जैसे।
एक छोटी सी हलचल से ज़मी में आई हो गहरी दरार जैसे।
एक हल्की से ठोकर से टूट कर बिखरा हो कांच का सपना जैसे।
एक पल के अंधेरे से खाली हुआ हो सपनों का पूरा शहर जैसे।
एक जलते दिए को बुझाया हो खुद हांथो से तूने जैसे।
क्या यही वो तेरा प्यार था, क्या यही वो तेरा साथ था।।



MARCH 1976 : ( 42 साल पहले )



बाबूजी :- "अरे अब क्या स्वर्ग से अपनी माँ के हाँ बोलने का इंतेज़ार कर रहा है??? जब ममता छोटी सी बच्ची थी ना, तबसे जनता हूँ मैं उसे। वो बहुत ही सुशील और समझदार लड़की है , बेटा। वो इस घर को और तुझे अच्छे से संभाल लेगी।"



रूपेश जी :- "बात ममता की नही है बाबूजी, बात मेरी है। मैं अभी शादी के लिए तैयार नही हुँ, मुझे थोड़ा वक्त और चाहिए।"



बाबूजी :- "अरे 24 साल का हो गया है, अच्छी खासी नौकरी कर रहा है, अब और कितना तैयार होना है शादी के लिए तुझे??? देख अगर किसी और लड़की का चक्कर है तो अभी ही साफ साफ बात दे मुझे।"


रूपेश जी :- "नहीं बाबूजी ऐसी कोई बात नही है। मैं तो बस......"



बाबूजी :- "जब ऐसी कोई बात नही वेसी कोई बात नही, तो फिर दिक्कत क्या है?? देख बेटा ममता भी अब 21 बरस की हो चली है, कॉलेज भी पूरा कर लेगी इस साल। उसके घरवाले भी तो बस हमारा जवाब सुनने के इंतज़ार में है। मैं पिछले साल भर से बात रोके हुए हूँ, लेकिन अब तो हमे उन्हें कोई ना कोई जवाब तो देना ही होगा ना।"



रूपेश जी :- "वही तो मैं कह रहा हूँ ना बाबूजी, आप मुझे 1,2 साल का समय दे दीजिए, फिर आप जिससे कहेंगे, मैं उससे शादी कर लूंगा।"



बाबूजी :- "क्यो 1, 2 साल में तू प्रधानमंत्री बन जायेगा क्या, और बन भी गया तो क्या ममता तेरे पैर पकड़कर तुझे प्रधानमंत्री नही बनने देगी क्या??? क्या बच्चो जैसी बातें कर रहा है। मैं जा रहा हूँ कल उनके घर और तेरी शादी की बात पक्की करके आता हूँ। ये मेरा आखिरी फैसला है।"



रूपेश जी :- "लेकिन बाबूजी........."



बाबूजी :- "क्या लेकिन वेकिन??? जो काम तुझे 1, 2 साल में करना ही है, वो इसी साल क्यों नही??? अगर कोई ठोस कारण है तो बाता, नही तो इस बात को यहीं खत्म कर।"



रूपेश जी :- "बाबूजी वो मैं..... मैं...... वो....... वो....... मैं......."


बाबूजी :- "क्या मिमिया रहा है, कोई और लड़की का चक्कर है नही, बेरोजगार तू है नही, छोटा बच्चा तू है नही, फिर क्या???? अरे !!!!!!!!........ कहीं तू कोई हकीम बैरागी की दवाइयों के चक्कर मे तो नही पड गया??? तेरे जाननांग में तो कोई दिक्कत तो नही हो गयी???? चल मै तुझे अभी दवाखाने ले चलता हूँ।"



रूपेश जी :- "नहीं बाबूजी ऐसी कोई बात नहीं है। बस मुझे थोड़ा सा वक़्त चाहिए।"



बाबूजी :- "ये बात नही है, वो बात नही है, तो वक़्त का क्या करेगा तू??? अचार डालना सीखेगा क्या??? हट चल अब यहाँ से, मैं कल तेरा और ममता का रिश्ता पक्का करने जाऊंगा और जो दो दिनों में नौदुर्गा आने वाली है, उसमे गोदभराई और बरिकछा कर लेंगे, और फिर इसी साल पंडित जी से कोई अच्छा सा मुहूर्त निकलवा लेंगे।"



रूपेश जी :- "बाबूजी.........."



बाबूजी :- "क्या बाबूजी बाबूजी!!!! देख ये शादी से पहले वाली घबराहट सबको होती है, लेकिन फिर धीरे धीरे सब ठीक हो जाता है। और ममता एक बहुत ही सीधी और सुलझे विचारों की लड़की है। उससे अच्छी बहु मैं शायद तेरे लिए ना खोज पाऊँ। अब तेरी माँ होती तो वो ये काम अच्छे से करती, लेकिन मै जानता हुँ ममता उसे भी बहुत पसंद आती। चल अब तू खाना खा ले, मैं कल तेरा ब्याह पक्का कर आऊंगा।"



बंध चले हैं किसी और के दमन में इस तरह,
टूटे दिल को सजा पाएंगे न जाने किस तरह।
लिए जो छोटे कदमो के सात फेरे जिस तरह,
बिसरी यादों के साये में आगे बढ़ पाएंगे ना जाने किस तरह।
आज मांग में सजाया है ये सिंदूर जिस तरह,
बेरंग ज़िन्दगी से रंग किसी और ज़िन्दगी में भर पाएंगे ना जाने किस तरह।
गले मे पहनाया है जो ये हार जिस तरह,
हारे हुए इस जीवन से निकल पाएंगे ना जाने किस तरह। 
बंध तो चले हैं किसी और के दमन से इस तरह,
टूटे दिल को सजा पाएंगे ना जाने किस तरह।




        चलिये अब आपको मिला ही देता हूँ, रूपेश से। रूपेश  मिश्रा अपने बाबूजी आलोक नाथ मिश्रा के इकलौते सुपुत्र। मिश्रा जी की धर्मपत्नी वसुंधरा जी का निधन सारे गांव में फैले प्लेग में हो गया था और साथ ही चल बसे थे मिश्रा जी के माता पिता और पीछे छोड़ गए थे 1 बरस के रोते बिलखते रूपेश को। मिश्रा जी ग्वालियर में शिक्षक थे और बाकी सारा परिवार भिंड जिले के प्रतापपुर, जिसे आम बोलचाल की भाषा मे पत्तापूरा भी कहते हैं, गांव के अपने खुद के मकान में रहता था। मिश्रा जी को जैसे ही खबर लगी कि सारे इलाके में प्लेग फैल गया है, वे निकल पड़े अपने गांव की ओर अपने परिवार को बचाने। लेकिन वे नाकामयाब रहे। वे फौरन ही सभी को भिंड जिले के सरकारी हस्पताल में ले तो आये, लेकिन बचा पाए केवल अपने बेटे रूपेश को।


        तबसे बस वे दोनों पिता पुत्र ही एक दूसरे का परिवार थे। पत्तापुरा का घर, खेती-बाड़ी सब बेच कर मिश्रा जी ने ग्वालियर में ही अपना एक नया घर बनवा लिया था, और रिश्तेदारों और जान परिचित के लोगों के खूब ज़ोर देने पर भी दूसरी शादी नही की। वे रूपेश को सौतेली माँ के हवाले नही करना चाहते थे। जैसे तैसे सुख में - दुख में उन्होंने अकेले ही रूपेश को पाल पोस कर बड़ा किआ।


       जिस तरह सूरज का उगकर डूबना, चंद का घटना - बढ़ना, और तारों का टूटना किसी के हाँथ में नही होता, ठीक वैसे ही एक बालक का वयस्क होना, एक प्राकृतिक नियम है। मिश्रा जी के लिए तो रूपेश अभी भी वही छोटा सा बच्चा था, लेकिन अब रूपेश के दिल को काबू में कर पाना उनके बस में ना था। ठीक उसी तरह इस दिल का किसी और दिल पर आ जाना भी महज़ एक प्राकृतिक घटना है। अब वो दिल किसी जानवर का हो, किसी स्त्री का या फिर किसी पुरुष का। प्रकृति इस निस्वार्थ प्रेम के भाव मे कोई भेदभाव नही करती। अब ये अंतर और बंदिशें हम इंसानो की ही बनाई हुई हैं।


       लेकिन इन बंदिशों को तोड़ रूपेश का दिल आया, उसके साथ पड़ने वाले राजेश तंवर पर। रूपेश ने बचपन से ही,  परिवार के नाम पर सिर्फ अपने बाबूजी को देखा था, तो नए रिश्ते, नया प्यार, ये सब पाने की भूख उसमे और लोगों से कहीं ज्यादा थी। प्यार और अपनेपन का खिंचाव वो जो राजेश के लिए महसूस करता था, वेसा कोई दूसरा रिश्ता अभी तक उसके जीवन मे नही आया था। अपने इस रिश्ते के अभाव के जीवन मे, इस नए रिश्ते को वो खुद से दूर नही जाने देना चाहता था, और बस यही चाहत उसे बांधे हुई थी राजेश से एक बहुत ही नाज़ुक डोर से। दोनों ही इस बात से भली भांति परिचित थे, की वो जो इस रिश्ते को निभाना चाहते है, वो इस समाज के लिए और शायद इस वक़्त के लिए, पूर्णतः एक गलत मेल, एक मानसिक रोग और शायद किसी बुरी बला का साया है।


        किसी और कि तो छोड़िए, उन दोनों ने ही इस रिश्ते को बस एक दूसरे के दिल के किसी कोने में ही दबा के रखा था, और बाहर की दुनिया मे वे दोनों ही एक दूसरे को अपना अच्छा मित्र ही बताया करते थे। अब आप चेहरे पर तो बनावटी भावों का नकाब पेहेन सकते हो, लेकिन भीतर मन में कोई नकाब काम नही आता। चेहरे पर तो दोनों के दोस्ती के नाम की हंसी बिखरी होती थी, लेकिन दोनों के दिल बराबर एक दूसरे के नाम से ही धड़कते थे। ये धड़कन तो उम्र भर की थी, लेकिन बाबूजी के रूपेश की शादी पर ज़ोर दिए जाने से, उनका साथ जरूर कमजोर हो चला था।


       उन दिनों जहां दो लड़कों का पार्कों में एक दूसरे का हाँथ पकड़ कर घूमना जितना आम बात थी, वहीं आज की तरह अपने दिल की बात अपने घरवालों और बाकी लोगों को बता पाना कठिन। दोनो ने ही अपने इस रिश्ते के बारे में किसी को भी न बताना ही सही समझा हुआ था।

       उन दिनों जहां चंद पलों के साथ को, प्यार के हल्के से एहसास को ही, सच्चा प्यार बना कर, पूरी उम्र उस सच्चे प्यार के लिए बिता देना आम बात थी, वहीं आज की तरह अपने प्यार का सबके सामने इज़हार करना बहुत ही कठिन। दोनो ने ही अपने इस प्यार के एहसास को ताउम्र अपने मन मे ही बसाये रखने का अटूट फैसला लिया हुआ था। 


       उन दिनों जहां अपने प्यार का नाम भी याद आने पर मुस्कुराना और उन यादों में ही अपना सारा जीवन बिताना आम बात थी, वहीं आज की तरह कई सालों के प्यार को भुलाकर, एक नए साथी की तलाश में निकल जाना कठिन। दोनो ने ही बस एक दूसरे को हमेशा के लिए अपनी यादों में ही संजोये रखने का फैसला लिया हुआ था।

        उन दिनों जहां अपने परिवार के लिए अपने प्यार को झुकाकर आगे बढ़ जाना, फिर कभी भी एक दूसरे का चेहरा न देखने का वादा कर, जीवन भर अपने प्यार को न भुलाने की कसम खा पाना आम बात थी, वहीं आज की तरह ठीक यही सब एक अलग मंशा के साथ कर पाना कठिन। दोनो ने ही अपने जीवन मे आगे बढ़ना, लेकिन महीने में केवल एक बार ही सही किसी सिनेमाहॉल में बैठकर अपने प्यार और इस हसीन साथ के पल को याद करना तय किया हुआ था। 


        और इन्ही वादों के साथ दोनो हमेशा के लिए अलग भी हो गए। प्यार सिर्फ वो ही तो नही होता, जो मुक्कमल हो जाये। प्यार सिर्फ वो ही तो नही होता जो मशहूर हो जाये। प्यार सिर्फ वो ही तो नही होता, जो बस लड़का और लड़की के बीच हो जाये। रूपेश और राजेश का प्यार भी सच्चा प्यार था, क्या हुआ जो उन्होंने किसी और को अपने प्यार के बारे में बताना सही न समझा। क्या हुआ जो उनका प्यार किसी मंजिल तक ना पहुंच पाया। क्या हुआ जो वो दोनों समलैंगिक थे। लेकिन प्यार का तो कोई लिंग नही होता। प्यार तो प्यार होता है। और वही सच्चा प्यार किआ था राजेश और रूपेश ने। क्या हुआ जो दोनो ने साथ जीने मरने की कसमें नही खाई। क्या हुआ जो दोनो ने अपने अलग अलग घर बसाये। क्या हुआ जो दोनो ने अपने अपने परिवारों को जायज़ प्यार देने में अपना पूरा जीवन खपा दिया। क्या हुआ जो दिन में एक बार आंखे बंद करके अपना पुराना जीवन याद कर लेते है। क्या हुआ जो हर महीने अपने प्यार की याद में कुछ समय उस सिनेमाहॉल में बिता आते है।


गलत, गलत उनका रिश्ता नही,
गलत, गलत उनका प्यार भी नही,
गलत, गलत उनका घर बसाना भी नही,
गलत, गलत उनका एक दूसरे को न भूला पाना भी नही,
गलत तो वो होता जब वो एक रिश्ते में रह कर दूसरे रिश्ते को निभाने की कोशिश करते,
गलत तो वो होता जब वो रोज़ एक दूसरे से मिलते और आज को भूल जाने का प्रयास करते, 
गलत तो वो होता जब वो अपने प्यार के नाम पर किन्ही औरों की ज़िंदगी बर्बाद करने की बात करते।



          राजेश का पता अब रूपेश को पता भी नही था। राजेश के अब इस दुनियां में होने या न होने का कोई भी अंदाज़ अब रूपेश को नही था। राजेश की दी कसमों और वादों से रूपेश अपनी ज़िंदगी मे आगे बढ़ चुका था।  अब रूपेश 67 वर्ष का हो चुका था। उसकी एक पत्नी ममता, उनके दो बच्चे अंजलि और अर्जुन और उन बच्चो के जीवनसाथि पीयूष और छाया और उनकी पोती पिंकी और नाती बिट्टू, ये हसता खेलता परिवार ही अब रूपेश की ज़िंदगी बन चुका था। और ऐसा भी नही था कि रूपेश के लिए तुरंत राजेश को भुला कर आगे बढ़ जाना आसान था, उसे ममता को अपनाने और बच्चों को वजूद में लाने में 8 सालों के समय लग गया था। लेकिन फिर भी दिल के किसी कोने में अब भी एक खास जगह राजेश की बाकी थी। और उस जगह ने कभी भी रूपेश कि आज की ज़िंदगी मे कोई भी ख़लल नही डाली थी। लेकिन हर महीने सिनेमाहॉल जाने की आदत जो उसे राजेश के साथ पड़ गयी थी, बस वही एक निशानी आज भी राजेश के नाम पर याद की जाती थी।


           आज हमें प्यार में हारे, लाचार, निराश और अपने जीवन को ही खत्म कर देने वाले लाखों आशिक मिलते हैं। आज का प्यार उनके लिए एक कमजोरी साबित होता है, जबकि प्यार में तो वो ताकत होती है, जिसके सहारे आप सातों समन्दर और आग का दरिया भी पार कर सकते हैं। फिर ये तो बस रूपेश की मामूली सी ज़िन्दगी थी, जो वो अपने प्यार को दी कसम के सहारे जिये जा रहा था।


       आप मेरी इस कहानी में कई कमियां, कई ख़ामियां ढूंढ सकते है, लेकिन वो प्यार जो रूपेश ने राजेश से किआ, और वो प्यार जो रूपेश ने अपने घरवालों को दिया, इनके पहलू जरूर अलग हो सकते है, लेकिन वो प्यार एक दम सच्चा है, और उसमें कमिया निकलने का हक हमे नही। उस समय के न जाने कितने राजेश और रूपेश होंगे जो मेरी इस कहानी की तरह अपना समय बिता रहे होंगे। और आज भी न जाने कितने राजेश और रूपेश होंगे जो इस कहानी की तरह ही कसमे वादे ले कर अपना आगे का जीवन बिताएंगे। गलती किसी की नही, गलत इंसान नही, हालात होते है, और उन हालातों में लिए गए फैसले। अगर रूपेश हिम्मत कर अपने बाबूजी को सब सच बता देता, तो शायद ये कहानी आज कुछ और मोड़ ले रही होती।



एक दौर-ए-ज़िन्दगी ये भी था, एक दौर-ए-ज़िन्दगी वो भी थी।
एक हसीन पल ये भी था, एक रूहानी ज़िन्दगी वो भी थी।।


जब तू मेरे पास होता था, तो ये दुनिया ओझल हो जाया करती थी,
अब जब तू मेरे पास नही, तो भीड़ में भी खुद को अकेला पाता हूँ,
तेरे दिए हर कसमो-वादों के खातिर ही, इस जिस्म में सांस खींच ले आता हूँ,
एक पल ना ऐसा खाली गया, जब याद ना तेरी आती थी,
एक दौर-ए-ज़िन्दगी ये भी था, एक दौर-के-ज़िन्दगी वो भी थी।


जब तू मेरे साथ होता था, तो ये कायनात भी फ़ीकी लगती थी,
अब जब तू साथ यूँ छोड़ गया, मन मार जीवन को आगे बढ़ाता हूँ,
तेरे वादों को निभाने के कारण ही, घर अपना संजोया करता हूँ,
अकेले रहने में कोई हर्ज ना था, तेरी कसमे भारी पड़ जाया करती थीं,
एक दौर-ए-ज़िन्दगी ये भी था, एक दौर-ए-ज़िन्दगी वो भी थी।


जब तेरा चेहरा मेरी आँखों में होता था, मेरी ज़िंदगी बस यूँही थम जाया करती थी,
अब जब तू बस यादों में ही रह गया, शीशे में खुद को यूं संवार लेता हुँ,
तुझे याद करने के बहाने ही सही, तुझे दिए वादों में तुझको निहार लेता हूँ,
यूँ आईने के सामने अच्छा तो न लगता था, बस वो घड़ी कमी तेरी पूरी कर जाया करती थी,
एक दौर-ए-ज़िन्दगी ये भी था, एक दौर-ए-ज़िन्दगी वो भी थी।


जब तेरी बाहों का हार गले मे सजता था, ये धरती फूलों सी सुंदर नज़र आती थी,
अब जब तू ही मेरा हाँथ यूँ छोड़ गया, फिर भी हर बार उस सिनेमाहॉल को जाता हूँ,
तेरे वादों को पूरा करने को, हंसी-खुशी अपना वक़्त मैं बिताता हूँ,
यूँ तो फिल्मे देखने का कोई शौक न था, लेकिन उस अंधेरे में तेरी यादें साफ नजर आती थीं,
एक दौर-ए-ज़िन्दगी ये भी था, एक दौर-ए-ज़िन्दगी वो भी थी।


यूँ तो आज बाजार में कोड़ियों के भाव प्यार मिला करता था,
लेकिन ढूंढने से भी उस सौदे में प्यार की भावना नहीं मिलती थी,
यूँ तो आज भी कई कश्तियाँ दोराहे के समन्दर से गुज़रा करती थीं,
लेकिन इन कश्तियों की पतवार अब हमेशा बदल जाया करती थी,
एक दौर-ए-ज़िन्दगी ये भी था, एक दौर-ए-ज़िन्दगी वो भी थी।
एक हसीन पल ये भी था, एक रूहानी ज़िन्दगी वो भी थी।। 
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Lots Of Love
Yuvraaj ❤️ 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 

















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Shadi.Com Part - III

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