Thursday, October 8, 2020

वो सफ़र... - लघुकथा

 Hello friends,

                          I am again here to present  a very short story. It's just a thought which came into my mind while I'll traveling. So now I present that thought in the form of a short story. Hope you like it.



       बाहर हो रही चहल कदमी और आवाज़ों से जब मेरी आंख खुली, मैंने बाहर देखा, तो ट्रेन किसी स्टेशन पर रुकी हुई थी। मैंने जब खिड़की से झांककर देखा, तो वह आगरा स्टेशन था। मैंने पास रखी पानी की बोतल को उठाया, तो उसमें पानी खत्म हो चुका था। पानी लेने जाने के लिए जब मैं अपनी सीट से उठने लगा, तो एक आवाज मेरे कानों में सुनाई दी।


"ट्रैन बस चलने ही वाली है!!!!!"


मैंने पलट कर देखा, तो मुझसे उम्र में कुछ ही बड़ा एक लड़का, हाँथो में मोबाइल लिए, मेरे सामने वाली सीट से, मेरी ओर ही देख रहा था। चेहरा तो कुछ जाना पहचाना सा लग रहा था, और बोलने के लहजे से भी झांसी का ही लग रहा था।


"हाँ!!! मैं जल्दी से पानी लेकर आ जाऊंगा। आप please मेरा bag देखते रहिएगा।"


      मैं ट्रेन से उतरा और नल की खोज में थोड़ा आगे की ओर चला गया। नल पर ज्यादा भीड़ तो नहीं थी, लेकिन कुछ लोग हाथ मुंह धो रहे थे, और कुछ अपनी बोतल लेकर पानी भरने का इंतजार कर रहे थे। मैंने भी नल के खाली होने का इंतजार किया, और नल खाली होते ही, जैसे ही अपनी बोतल को नल के नीचे लगाया। ट्रेन ने स्टेशन छोड़ने का सिग्नल दिया। लेकिन पता नही क्यों, मेरा वापस से ट्रेन की ओर जाने का मन ही नही किआ। मैंने बड़े आराम से अपनी पानी की बोतल को भरा, और उधर ट्रैन ने धीरे धीरे स्टेशन को छोड़ते हुए, अपनी रफ्तार बढ़ानी शुरू कर दी। और मैं अपने हाँथो में पानी की बोतल लिए, वहाँ खड़ा, ट्रैन को जाते देखता रहा। कुछ देर वहीं खड़े रहने के बाद, मैंने अपना मुँह धोया, और वहीं पास पड़ी बैंच पर आकर बैठ गया। ट्रैन के जाते ही स्टेशन पर थोड़ी शान्ति सी हो गयी थी। रात के 3 बजे, और प्लेटफार्म नंबर 3 होने के कारण, वहाँ कुछ 2 3 लोग ही मौजूद थे, और वो लोग भी नवंबर की हल्की सर्दी में चादर ओढ़े सो रहे थे। मैं भी बैंच से टिक कर, अपनी आँखें बंद कर के सोच ही रहा था, की अब क्या करना चाहिए, की तभी वही आवाज़ फिर से मेरे कानों में पड़ी।


"इससे अच्छा तो ट्रैन में ही सो जाते!!!"


     मैंने आँखे खोली, तो वही ट्रैन वाला लड़का मेरा bag हाथोँ में लिए, मेरे सामने खड़ा था।


"Sorry आपको मेरी वजह से ये तकलीफ उठानी पड़ी। लेकिन आपको ऐसा करने की कोई जरूरत नही थी।"


"अरे!!!! अब तुमने कहा था कि bag को देखना!!! तो ये bag को कब तक देखता रहता??? ट्रेन से बाहर तुम्हे देखा, तो तुम बुत बने खड़े थे, तुम ट्रैन में नही चढ़े तो मैं तुम्हारा bag लेकर नीचे उतर गया।"


"Thanq so much!!! लेकिन सच में, इस bag के लिए ऐसा करने की कोई भी जरूरत नही थी। इसमे मेरे कुछ कपड़ों के अलावा कुछ भी नही है। और इसकी वजह से आपकी ट्रैन भी छूट गयी।"


(उसी बैंच पर बैठते हुए अपने माथे पर हाँथ पीटते हुए) "वैसे मैं ये कहता हुआ थोड़ा पागल लगूंगा तुम्हे, लेकिन मैं ट्रैन से उतरने से अच्छा, chain pulling कर के ट्रैन रोक भी तो सकता था।"



      उसके ऐसा कहते ही, हम दोनों ही ठहाके लगा कर हँसने लगे। और हँसते हँसते ही मेरी आँखों मे आँसू आ गए, और मेरे होंठों पर बर्फ सी जम गई। और मेरी उदासी भरी शक्ल को देख कर उसने कहा।


"क्या हुआ??? मेरा यहाँ बैठना अच्छा नही लगा?? या फिर ये बैग??? कहो तो मैं और ये बैग, दोनों यहाँ से चले जायें???"


      

        मैंने मुस्कुराते हुए उसकी बातों का जवाब दिया।


"नहीं ऐसा कुछ भी नहीं!! बस मुझे मेरे पापा की याद आ गयी। आखिरी बार उनके साथ ही ऐसे खुलके हँसा था।"


"Hmmmmm और तुम्हे हँसते ही रहना चाहिए, तुम्हारे चेहरे पर हँसी ही अच्छी लगती है, ये उदासी नहीं। और तुम्हारे पापा भी यही चाहेंगे, की तुम हमेशा हँसते रहो।"


"हाँ!!! लेकिन ये कहने के लिए अब वो इस दुनिया में ही नही है।"



    वैसे तो मैं इतनी जल्दी किसी से नही घुलता मिलता हूँ, लेकिन उस अजनबी में पता नही वो कोनसा अपनापन था, जो मैं उससे अपने मन की, अपने हाल की सारी बातें बिना हिचकिचाए कर सकता था। मुझे बचपन से ही अकेले रहने की आदत भी थी, मुझे किसी का भी साथ इतनी जल्दी नही भाता था, लेकिन फिर भी, उस अजनबी से कुछ पलों की ही मुलाकात में, मुझे अपने अब तक के 18 साल के जीवन के हर लम्हों से उसे अवगत कराने में भी कोई झिझक नही थी। अब यूं तो ऐसा कुछ खास नही था मेरा जीवन, जिसके बारे में कोई किस्सा किसी को सुना सकूँ। मैं कक्षा 6 से ही, देहरादून के बोर्डिंग स्कूल में पढ़ाई के लिए चला गया था, और अभी भी वहीं के एक कॉलेज में फर्स्ट ईयर में एडमिशन लिया था। पापा की तबियत खराब रहने की वजह से, पिछले 10 दिनों से झाँसी में ही था। परिवार के नाम पर मेरे पास सिर्फ मेरे पापा ही थे। वही मेरा सारा परिवार थे। मेरी मां मुझे जन्म देते वक्त ही इस दुनिया को अलविदा कह गई थी। और मेरे पापा ने ही मुझे पाल पोस कर इस लायक बनाया था, कि मैं आज उनके बिना भी, इस दुनिया में अकेले रहने की कोशिश कर पा रहा था। कहने को तो दिल्ली में मेरा ननिहाल भी था, लेकिन मेरी माँ के द्वारा, एक अनाथ लड़के के संग प्रेम विवाह करने की वजह से, उन लोगो ने मेरे माँ पापा से इन 21 सालों में कोई संबंध नही रखा था। मेरे माँ पापा ने, माँ के घरवालों के विरुद्ध जा कर, घर से भागकर, दिल्ली से दूर, यहाँ झांसी में अपनी एक छोटी सी दुनियाँ बसा ली थी। उनकी शादी के 3 सालों के बाद मेरा जन्म हुआ, और मैंने इस दुनियाँ में आते ही, अपने पापा का इकलौता परिवार, उनका प्यार ही उनसे छीन लिया। लेकिन सभी परेशानियों के बाद भी, मेरे पापा ने मुझे बड़े ही लाड़, प्यार से, पाला पोसा। मेरे अच्छे भविष्य की कामना में, उन्होंने मुझे खुद से दूर भेजने में भी, जरा सी भी झिझक नही दिखाई, और मुझे खुद से दूर भी भेज दिया था। रोज टेलीफोन पर बात हो जाया करती थी, स्कूल की छुट्टियों में मैं झांसी आ जाया करता था। या साल के बीच में कभी पापा मुझसे मिलने देहरादून आ जाया करते थे। यह सफर कुछ साल ऐसा ही चलता रहा था। लेकिन जब कुछ दिनों पहले पापा का मेरे पास फोन आया, और उन्होंने मुझे अपने पास आने को कहा। तो मुझे नहीं पता था, कि यह उनका आखिरी फोन होगा, और यह कुछ दिन मेरे पापा के साथ बिताए आखिरी दिनों में से एक हो जाएंगे।


      मैं अपनी सोच में कुछ यूं डूब गया था, जैसे मानो मैं भूल ही गया था, कि मैं आगरा रेल्वे स्टेशन के, प्लेटफार्म नंबर 3 पर पड़ी उस बैंच पर, किसी अजनबी के साथ बैठा हूँ। मेरी आँखों के सामने, पापा के साथ बिताए प्यारे लम्हों का सफर, किसी तेज रफ्तार से दौड़ती ट्रैन की तरह गुजर रहा था। मेरी पलकें फिर उसी आवाज के साथ झपकी।


"कहाँ जा रहे थे तुम??? वैसे मैंने अपना नाम नही बताया, मैं मानव हूँ।"


"मानव!!!!! मैं विनय।"


मानव :- "hmmmmm.... मानव याने इंसान का बच्चा!!!! पुजारी बाबा ने मेरा नाम मानव ही रख दिया, जब मैं उन्हें मंदिर की सीढ़ियों पर मिला।"


विनय :- (मुस्कुरा कर) "आप भी अनाथ, और मैं भी!!!"


मानव :- "जिसका कोई नही होता उसका भगवान होता है। या वो किसी ना किसी को आपके लिए भेज ही देता है। जैसे मुझे भेज दिया, ये bag लेकर, तुम्हारे पास!!!"


विनय :- (हँसते हुए) "आप बातें बड़ी अच्छी बना लेते हो।"


मानव :- "hmmmmm मार्केटिंग जॉब में हूँ, बातें बनाने के ही पैसे मिलते हैं। वैसे बताया नही तुमने??? कहाँ जा रहे थे??"


विनय :- "दिल्ली!!!! लेकिन जाऊं या नहीं, समझ नही पा रहा।"


मानव :- "मतलब???"


विनय :- "दरअसल मेरे पापा की यही आखिरी इक्छा थी!!! कि अगर उन्हें कुछ हो जाता है, तो मैं दिल्ली अपने ननिहाल चला जाऊं।"


मानव :- "तो फिर??? अपने ननिहाल जाने के लिए इतना क्या सोचना???"


विनय :- "इतना आसान नही है सबकुछ!!!"


मानव :- "मैं भी दिल्ली ही जा रहा हूँ। मेरे साथ चलो, मैं छोड़ दूंगा तुम्हें वहाँ!"


विनय :- "नहीं!!! नहीं!!!! वैसे ही मेरी वजह से आपको बहुत परेशानी हुई है, अब और ज्यादा परेशान होने की जरूरत नहीं है।"


मानव :- "मैंने कहा ना, शायद भगवान ने ही मुझे तुम्हारे लिए यहाँ भेजा हो। चलो!!! Main station पर चल कर पता करते हैं, अगली ट्रैन कब है!!!"



       मैं उसकी कोई मदद लेना तो नहीं चाहता था, लेकिन उसके व्यवहार से, उसकी बातों से मुझे अपनेपन का वो एहसास हो रहा था, जो मैंने अपने पापा के अलावा किसी और से कभी महसूस ही नही किआ था। और उसी भाव के प्रति विवष होकर, मैं भी बिना कुछ बोले, चुप चाप उसके पीछे पीछे चलता हुआ, अगरा के 1 नंबर प्लेटफार्म से बाहर निकर कर, पूछताछ खिड़की पर जा पहुंचा। वहाँ जा कर पता चला कि कुछ ही देर में एक ट्रेन आएगी, जो नई दिल्ली की ओर जाएगी। पर मुझे तो दिल्ली सराय रोहिल्ला स्टेशन पर जाना था, और दिल्ली शहर मेरे लिए बिल्कुल अनजान था। इससे पहले, मैंने झांसी और देहरादून के अलावा कोई और शहर देखा तक नही था, यहां तक कि, इन दोनों शहरों से भी मैं अभी तक लगभग अनजान ही था। तो दिल्ली जैसे महानगर में जाकर, उस घर का पता खोजना, जहाँ शायद मेरा इंतज़ार भी नही हो रहा हो, मेरे लिए बहुत ही मुश्किल होने वाला था। इसके बारे में सोचकर ही, मेरे चेहरे पर आई शिकन को भांपते हुए, मानव ने कहा।



मानव :- "ऐसा करते हैं, पीछे आने वाली ट्रेन से ही निकल चलते है। नही तो सुबह तक का इंतज़ार करना पड़ेगा। मैं नई दिल्ली से तुम्हे तुम्हारे ननिहाल भी छोड़ दूंगा, उसकी चिंता मत करना तुम।"



      मानव के कहे शब्दों का असली भाव, मैं अच्छे से समझ सकता था। एक अनाथ के लिए इतना कह भर देना ही, बहुत मददगार होता है, की "मैं हूं तुम्हारे साथ"!!!!! लेकिन मानव भी तो इस परेशानी में मेरी वजह से ही फसा था। अब उसकी और मदद लेने के बारे में सोचने से ही, मुझे उसके लिए बिल्कुल अच्छा नही लग रहा था।


विनय :- "नहीं मानव!!! मेरी वजह से ही तो आपको इतनी परेशानी हुई है, अब और परेशानी उठाओगे, तो मुझे बिल्कुल अच्छा नही लगेगा। हम चलते हैं नई दिल्ली, मैं चला जाऊंगा वहां से।"



       हम दोनों अगली ट्रैन से दिल्ली के लिए निकल गए। सुबह के 4 बज गए थे। ट्रैन के अंदर सभी लोग सो रहे थे, और कुछ लोग मथुरा आने का इंतेज़ार कर रहे थे। हम लोगों को बड़ी मुश्किल से, बैठने को जगह मिल तो गयी थी, लेकिन उतनी सी जगह में, एक ही व्यक्ति अच्छे से बैठ सकता था। मानव ने मुझे वहां बिठाया और खुद मेरे पास ही खड़ा हो गया। मैं मानव जैसे व्यक्ति को देख कर बहुत स्तब्ध था। आज के ज़माने में जहां सब पहले अपने बारे में सोचते है, और अपनी सुख सुविधाओं को प्राथमिकता देते हैं। उस समय मे, मैं जबसे मानव से मिला था, तबसे ही वो, मेरे लिए हर वो प्रयत्न कर रहा था, जैसे, मैं उसका कोई अपना ही हूँ। कुछ ही देर में, मैंने वहां थोड़ी सी जगह और बनाई, और मानव को भी साथ बैठने का इशारा किया। लेकिन उसने ना में सर हिलाया, और अपनी ही जगह पर खड़ा रहा। लेकिन मैंने उसका हाँथ पकड़ कर अपनी ओर खींचा, और उसे अपने पास ही बैठा लिया। मानव भी मेरी ओर देखकर मुस्कुराया और ठीक से व्यवस्थित होकर बैठ गया। कुछ देर में मथुरा स्टेशन भी आ गया, और हमे थोड़ा अच्छे से बैठने की जगह भी मिल गयी। रात भर जागने की वजह से हम दोनों को ही पलकें नींद से भरी होने लगी थी। और ही कुछ ही देर में, मानव नींद में झोंके लेने लगा और उसका सर इधर उधर गिरने लगा। मैंने मानव का सर सम्भालते हुए अपने कंधे पर रखा, और मानव मेरे कंधे के सहारे, गहरी झपकी लेने लगा। उस वक़्त पहली बार, मैंने मानव के चेहरे को इतने गौर से देखा था। वो सोते हुए बहुत ही मासूम लग रहा था। ट्रैन की खिड़की से आते हवा के झोंको में, उसके माथे पर थपकियाँ देते उसके बाल, उसकी आँखों पर चादर सी बिछी घनी पलकें, और उन पलकों पर पहरा देती, उसकी काली घनी भावैं। उसके चेहरे पर, उसकी वयस्कता की पहचान देती हल्की हल्की दाड़ी मूंछे, और उनमे घिरे, गुलाब सी पंखुड़ियों से उसके होंठ। और उसके चेहरे की शोभा बढ़ाती उसकी वो नुकीली नाक। उसके चेहरे को निहारते हुए, मैं एक पल को तो भूल ही गया था, की मैं कहाँ हूँ, और कहाँ जा रहा हूँ। लेकिन इस शारीरक सुंदरता से कहीं ज्यादा मोहक था, मानव का व्यक्तित्व, उसके सहयोग करने का व्यवहार। मानव का आंकलन करने मे कब समय बिता, मुझे पता ही नही चला, और मानो पलक झपकते ही नई दिल्ली रेलवे स्टेशन भी आ गया। मैने मानव को उठाया, और हम दोनों स्टेशन से बाहर आ कर, टमटम में बैठ, दिल्ली सराय रोहिल्ला के लिए निकल गए। 



      कुछ ही देर में हम पापा द्वारा बताए गए पते पर पहुँच गए थे। लेकिन उस घर के दरवाजे को खटखटाने की मेरी हिम्मत नहीं हो रही थी। मानव के बहुत समझाने के बाद मैंने उस घर की डोर बेल बजाई, और कुछ ही देर में लगभग मेरे पापा की उम्र का ही एक व्यक्ति दरवाजे के उस पार खड़ा हुआ था।


"जी कहिये!!!"


विनय :- (हिचकिचाते हुए) "जी मैं विनय!! मीरा और रकेश का बेटा!!!"


"कौन???"


विनय :- "मीरा शुक्ला और राकेश कुमार....!!!"


     मेरे द्वारा लिए गए नामों को सुनकर, सामने खड़ा वह इंसान कुछ देर तो चुपचाप मुझे टकटकी लगाए देखता रहा। और फिर उसने मुझसे कहा।


"तुम किसी गलत पते पर आ गए हो, यहाँ इन नामों को कोई नही जानता।"


     इतना कहकर, वो दरवाजा बंद ही करने वाले थे, की मानव ने दरवाजे को पकड़ते हुए, उनसे कहा।


मानव :- "कम से कम एक बार उसकी पूरी बात तो सुन लीजिए।"


"उन गिरे हुए लोगों के नाम सुनकर ही मैं ये दरवाजा बंद कर रहा हूँ।"


विनय :- "आपको नही मुझसे बात करनी है तो मत कीजिये, लेकिन मेरे माँ पापा के लिए बुरा बोलने की कोई जरूरत नही है।"


"बुरा???? जो मीरा ने हम लोगों के साथ किआ है, उसके हिसाब से तो मैंने अभी तक कुछ कहना शुरू भी नही किआ है। तुम्हे यहाँ भेज कर अगर वो लोग ये सोच रहे हैं, की हम लोग उन्हें माफ कर देंगे तो जाकर कह देना उन दोनों से, ये दरवाजे वो खुद हमेशा के लिए, खुद के लिए, बन्द करके गयी थी, और ये हमेशा उसके लिए बंद ही रहेंगे।"


विनय :- "वो दोनों ही अब इस दुनिया मे नही हैं। माँ तो मेरे जन्म के वक़्त ही हमे अलविदा कह गईं थीं, और पापा ने भी कुछ दिनों पहले हमेशा के लिए अपनी आंखें मूंद लीं।"


"हमारे लिए तो वो उस दिन ही मर गयी थी, जिस दिन उसने हमारी खुशियों में आग लगा कर, तुम्हारे बाप की दुनिया सजाने के फैसला लिया था। अब हमें ना उनसे कोई मतलब है, और ना ही तुमसे।"



     इन जली कटी बातों के साथ ही, उन्होंने दरवाज़ा बन्द कर लिया। पारिवारिक सहारे के नाम पर, वो घर ही मेरा आखिरी सहारा था। पापा ने सिर्फ इस उम्मीद से मुझे यहाँ आने को कहा था, की शायद ये लोग इतने सालों की नाराज़गी भुला कर, मुझे अपना लेंगे, और मेरे अकेलेपन को बाँट लेंगे। आर्थिक दृष्टि से ना सही, लेकिन मानसिक तौर पर, इस कच्ची उम्र में, मुझे सहारे की अत्यंत आवश्यकता थी। उसी को भांपते हुए, पापा ने मुझे यहाँ दिल्ली आने को भी कहा था। लेकिन शायद नियति को मेरा अकेला ही इस दुनिया मे जीना कुबूल था। आँखों मे आँसू, और चेहरे पर उदासी लिए मैं वहाँ से चलने लगा। कहाँ जाना है, क्या करना है, इस बात का तो कोई इल्म ही था, लेकिन उस बन्द दरवाजे के सामने नही खड़ा रहना चाहता था। इन सब में, मैं एक बार फ़िर मानव के बारे में भूल चुका था। और उसने फिर मेरा हाँथ पकड़ कर, खुद की मौजूदगी का एहसास करवाया।



मानव :- "कहाँ जा रहे हो अब???"


विनय :- "नहीं पता, शायद वापस अपने घर झाँसी चला जाऊं।"


मानव :- "चलो मैं साथ चलता हूँ।"


विनय :- "नहीं मानव!!!! आपका और मेरा साथ बस यहीं तक का था। मेरा इतना साथ देने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया। अब आगे का सफर मुझे अकेले ही तय करना है।"


मानव :- "मैं तुम्हे कुछ बताना, चाहता हूँ। मैं ये सब पहले ही बता देना चाहता था, लेकिन नही समझ पा रहा था कि तुमसे ये बात कैसे करूँ। मुझे पाला पोसा जरूर पुजारी बाबा ने है, लेकिन जीवन जीने के लायक तुम्हारे पिता, राकेश चाचा ने ही बनाया है। वे ही पुजारी बाबा को मेरी पढ़ाई लिखाई के लिए पैसे दिया करते थे। और वे तो मुझे भी देहरादून भेजना चाहते थे, तुम्हारे साथ, लेकिन पुजारी बाबा ने मुझे नही जाने दिया। राकेश चाचा मेरे लिए भगवान स्वरूप थे। शायद वे खुद अनाथ थे, इसलिए मेरे जीवन की कठिनाइयों को अच्छे से समझते थे, और हर पल मेरा साथ देते थे। सिर्फ उन्हीं की वजह से मैं आज अच्छे से अपना जीवन यापन कर पा रहा हूँ। नहीं तो पता नही कहां ,क्या, संघर्ष कर रहा होता।"


विनय :- (आश्चर्य से) "तो ये सब बातें आपने मुझे पहले क्यों नही बताई???"


मानव :- "क्या बताता?? जिस देवता ने मेरी ज़िंदगी सँवारी, उसके अंतिम समय मे मैं वहां नही था, और जब तुम अकेले हो, तब मैं तुम्हारा साथ देने के लिए आ गया हूँ!!! लोग और शायद तुम भी, मेरी नियत पर शक करने लगते!!!"


विनय :- "आप साफ और नेक दिल इंसान हो मानव!!! आपको ऐसा सोचने की कोई जरूरत नही है।"


मानव :- "मैं अपनी नौकरी के काम से बंगलोर गया हुआ था, और पुजारी बाबा ने भी राकेश चाचा की खबर मुझे नही दी, की कही मैं नौकरी छोड़ कर ही ना भाग आऊं। वो तो जब मैं अपने एक दोस्त से फ़ोन पर बात कर रहा था, तब उसने मुझे बताया कि, राकेश चाचा का कुछ दिनों पहले स्वर्गवास हो गया। ये सुनते ही मैं फ़ौरन वह से झांसी के लिए निकल दिया। और जब मैं झांसी स्टेशन पर उतरा, तो मैंने तुम्हें वहां देखा। और फिर तुम्हे देखकर मुझे तुम्हे अकेले जाने देने का मन ही नही हुआ, तो मैं तुम्हारे साथ ही चल दिया।"



     मानव की आंखों की नमी और उसके चेहरे के भाव, उसके द्वारा कहे गए एक-एक शब्द की सत्यता का प्रमाण स्वयं दे रहे थे। मैंने उसके द्वारा कही गई सभी बातों को स्वीकार कर, उसे अपने गले से लगा लिया।



मानव :- "मैं सच मे ये सब बात तुमसे छुपना नही चाहता था, लेकिन जब ट्रेन में तुमने मुझे पहचाना ही नहीं, तो मुझे समझ ही नही आया कि मैं ये सब कैसे बताऊ तुम्हे!!!"


विनय :- (मानव को गले से लगाये हुए ही) "कैसे पहचानता??? मैन आपको कभी देखा ही नहीं!!!"


मानव :- "तुम्हें याद नही है, हम बचपन मे साथ खेला करते थे। वो तो जबसे तुम देहरादून गए हो, तबसे ही नही मिले हम। और जब तुम गर्मियों की छुट्टियों में झांसी आते थे, तो पुजारी बाबा मुझे गर्मियों की छुट्टियों में मथुरा भेज दिया करते थे। पंडिताई सीखने के लिए।"


विनय :- (मानव से दूर हटकर, विनय को मुस्कुरा कर देखते हुए) "अच्छा तो आप पार्ट टाइम पंडित भी हो!!!"


मानव :- (मुस्कुराकर) "हाँ थोड़ा बहुत!!! (विनय का हाँथ पकड़ते हुए) "विनय मैं एक बात तुम्हे सच्चे दिल से कहना चाहता हूं, तुम्हे कभी भी खुद को अकेला समझने की कोई जरूरत नही है। मैं साये की तरह हमेशा तुम्हारे साथ रहूंगा। हाँ, मैं राकेश चाचा की कमी कभी दूर नही कर सकता, और ना ही मैं कभी उनकी जगह लेने की कोशिश करूंगा, लेकिन मैं अपने साथ से, अपनी एक अलग जगह तुम्हारे जीवन मे जरूर बनाये रखूंगा, और हमेशा तुम्हारा साथ निभाउंगा। और मैं ऐसा, राकेश चाचा के एहसानों के दबाव में नही कह रहा हूँ, और ना ही मैं राकेश चाचा के साथ को एहसान मानता हूं। मैं तुम्हारा साथ सिर्फ इसलिए दूंगा, क्योंकि बचपन से ही मेरे दिल मे तुम्हारे लिए एक खास जगह है, और उस जगह में, तुम्हारे देहरादून जाने के बाद भी सिर्फ इजाफा ही हुआ है।"



     इस वक़्त मैं मानव की आँखों मे एक अटूट विश्वास की चमक को साफ साफ देख सकता था। मानव के चेहरे का वो तेज, अग्नि को साक्षी मान कर ली जा रही शपथ के सापेक्ष ही था। और मैं वहाँ खड़ा खड़ा, मानव की आँखों की गहराईयों में डूबता ही जा रहा था। मेरे इस सम्मोहन को मानव की आवाज ने ही भंग किआ।


मानव :- "चले घर!!!! अभी वो सफ़र भी बाक़ी है।"



      ये है मेरे वो सफ़र की कहानी, जिसकी शुरुआत तो परिवार की तलाश में हुई थी, लेकिन अंत एक हमसफ़र के मिलने के साथ ही हुआ। एक ऐसा हमसफ़र जो कि सफ़र में, मेरी छोटी से छोटी सुख सुविधाओं का ख़्याल, खुद से भी ज्यादा रखता था। आगे इस हमसफ़र का मेरे जीवन मे कितना और क्या सहयोग रहता है, फिर कभी किसी कहानी के जरिये जरूर आपसे सांझा करूँगा।

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Lots of Love 

Yuvraaj ❤️




















    

4 comments:

  1. Dil ko chu gayi aapki kahana, kahi na kahi mere life se milti julti bhi hai

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  2. In a world full of crap-stories of romance and violence, stories based on Stockholm syndrome....your stories are like a breath of fresh air....thank you so much Yuvraaj ❤️
    For keeping me (and many other in despair) inspired and hopeful and entertained.
    One finds solutions to life crisis from examples around oneself, but queer people don't have enough examples around. That's why the culture of storytelling needs to be promoted. You're doing a great job Yuvraaj ❤️ you're serving the community...you've keeping us alive and active.
    Keep your spirits high even when you don't find enough encouragement... because even when you're not acknowledged, you're doing one of the noble-est job ever��⛲
    I wish I could do something for you to express my heartfelt gratitude!
    I secretly wish I could tell you my story and you could frame it in your beautiful language and showcase to the world❤️��

    Thank you Yuvraaj ❤️ ...keep writing!

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  3. Such a beautiful story... Log jaha aj kal s*x se bhari Hawwsi stories likhkr use pyar ka nam dete aa..

    Vahi aap ki kahaniya pyar ka sahi Mtlb smjhati aa...
    ❤️

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