Wednesday, September 12, 2018

कहानी तेरी मेरी Part - I

Hello friends.....
       Here my another narration  "कहानी तेरी मेरी" hope you like it as my previous once.


           ये कहानी है , दिल्ली के अनुज और ओरछा के आलोक की। ये कहानी है , छोटे और बड़े शहर की मानसिकताओं की। आलोक जहाँ एक बहुत ही छोटी जगह से है, जो सिर्फ अपनी ऐतीहासिक धरोहर और "राजा राम" की वजह से थोड़ा सा मशहूर है, और वंही अनुज का शहर किसी भी परिचय का मोहताज नही। छोटे शहरों के लोगों की सोच छोटी तो नहीं , लेकिन हाँ, संकुचित जरूर होती है। वे लोग बहुत दूर की तो नहीं सोचते, लेकिन हाँ, उनकी सोच में एक निर्मलता और शालीनता का भाव जरूर होता है। वहीँ बड़े शहरों के लोगो की सोच, चाहे भले ही दूर गामी क्यों न हो, लेकिन उसमें अपने पन की भावना थोड़ी कम होती है। छोटे शहरों में, लीग से हटकर, कुछ अलग भावों को जहाँ गलत समझ जाता है, वंही बड़े शहरों में किसी के अलग होने का , किसी को कोई फर्क भी नही पड़ता। लेकिन शहर छोटा हो या बड़ा , संलेंगिगक्त को सभी जगह एक ही नजर से देखा जाता है। इन्ही विचारधाराओं की खूबियों और कमियों को दर्शाती है ये "कहानी तेरी मेरी"।


         बेतवा नदी के किनारे बसा एक बहुत ही छोटा और सुन्दर नगर "ओरछा"। अगर आपको मौका मिले तो ओरछा का इतिहास जरूर पडियेगा, आपको एक अलग ही रोमांच का अनुभव जरूर होगा। ओरछा के एक बहुत ही छोटे से घर में रहता है आलोक, अपनी विधवा माँ सुशीला देवी के साथ। आलोक के पिता मनोहर रावत जी का निधन कुछ वर्षों पहले ही बीमारी के चलते हो गया था, तब से घर की और माँ की जिम्मेदारी आलोक के कंधों पर ही थी। पडाई की कोई अच्छी व्यवस्था और घर की माली हालत ठीक न हो पाने के कारण आलोक को ज्यादा पड़ने का अवसर नही मिला था। ओरछा के सरकारी विद्यालय से ही आलोक ने 12वीं कक्षा तक पड़ाई की हुई थी। यूँ तो आलोक अपने माँ बाप की इकलौती संतान था, लेकिन गरीबी के हालात में आलोक ने इकलौते होने का कोई भी हठ नही किआ था। मनोहर जी ओरछा में गाईड का काम किया करते थे, और उनके साथ रह कर आलोक भी सब कुछ सीख गया था। उसे अँग्रेजी, फ़्रांसिसी, जर्मनी तथा अन्य विदेशी भाषाओं के साथ साथ भारत की भी कई भाषाओँ का अच्छा खासा ज्ञान था। पिता जी के बाद अब आलोक भी ओरछा में आये सैलानिओं को ओरछा का भ्रमण कराया करता था। वंही सुशीला देवी जी भी राम मंदिर के पास अपनी एक छोटी सी फूलों की दुकान लगाया करती थीं। बस यही उन लोगों के जीविका का साधन था। आलोक को भी अब अपने पिता का स्थान लिए 2 वर्ष हो चुके थे, और अब वो अपने कार्य में एक दम निपूर्ण हो चूका था। यूँ तो आलोक के हमउम्र सहपाठी, झाँसी, ग्वालियर व अन्य शहरों में रह कर अपने आगे की पड़ाई पूरी कर रहे थे, लेकिन आलोक की प्राथमिकताएं कुछ और ही थीं। दिखने में ज्यादा ख़ास तो नही, लेकिन आकर्षक व्यक्तित्व का धनि था। सुविधाओं के अभाव में भी , अच्छे साफ़ - सुथरे कपडे पहनना , सुगन्धित इत्र सा महकना , सलीके से बाल बनाना , उसे पसंद भी था, और उसके पेशे के लिए जरूरी भी। 


        कम उम्र में ही आलोक को ये एहसास भी हो गया था कि उसे लड़कों में ही दिलचस्पी है। जैसे - जैसे बड़ा होता गया, तो इस साधारण से एहसास के कई अजीब और निंदनीय नाम सुनने को मिले। तब उसे समझ आया, की अब तक वो जिस भाव को सामान्य समझ रहा था, इस समाज के लिए  वो असामान्य और घ्रणित भाव है। बस तभी से वो एक दोहरी ज़िन्दगी जीने को विवश था। आलोक ने अपनी भावनाओं को, मन के किसी कोने में दबा लिया था और अभी तक उसे ऐसा कोई मिला भी नही था, जो उन भावनाओ को पुनः जाग्रत कर सके। वो आने वाले एक तूफ़ान से बिलकुल अंजान था, जो तूफ़ान दिल्ली से उठ कर कुछ ही समय में , बेतवा के किनारे टकराने वाला था। एक ऐसी आंधी जो उसके जीवन को पलट कर रख देने वाली थी। आगे होने वाली हलचलों से अंजान, सुबह तैयार होकर, आलोक निकल पड़ा था अपने घर से, सैलानिओं की खोज में।



          वंही गोल्फ लिंक्स जैसे दिल्ली के मंहंगे इलाकों में से एक में, महल जैसे घर में, सभी सुख - सुविधाओं के बीच पले बड़े अनुज ने, अभाव क्या होता है , ये शब्द भी शायद ही कभी सुना हो। दिल्ली की बाजवा इंडस्ट्री को कौन नही जानता। अनुज उसी बाजवा परिवार का इकलौता वारिस है। दादू, दादी, माँ, डैड की आँखों का तारा, सबका दुलारा। अनुज ने अपना बचपन एक राजसी ठाट - बाट में गुजारा है, और अभी भी राजकुमार की तरह ही अपनी ज़िन्दगी जी रहा है। विदेश में अपनी पड़ाई पूरी कर, भारत लौट कर भी, अनुसरण अभी भी उसी पाश्चात्य सभ्यता का ही करता है। विदेशों में और हमारे देश में कई अंतर हैं, और इसका साफ़ असर अनुज की सोच में दिखाई देता है।अनुज स्कूली समय से ही , अपनी sex life में active है, और उभयलिंगी (bisexual) है। स्कूल से ही कई girlfriends और boyfriends के साथ उसके शारिरिक संबंध रह चुके हैं, जो उसके लिए एक बहुत ही आम बात है। और लड़कियो से ज्यादा उसे लड़कों का ही साथ भाता है।



             भारत वापस आये अनुज को अभी ज्यादा समय नही हुआ था, और वो जल्द ही अपना family buisness भी join करने वाला था। वैसे तो उसका भारत वापस आने का कोई भी मन नही था, क्योंकि जो आजादी भरी ज़िन्दगी, वो वाहाँ विदेश में जी रहा था, ऐसा यहाँ कुछ नही होने वाला था। लेकिन फिर भी अपने डैड की शर्त को मान कर वो अपना मन मार यहाँ भारत वापस लौट आया था, लेकिन उसका मन अभी भी विदेश में ही था। अनुज के डैड की शर्त ये थी की उसे अब कुछ समय अपने परिवार के साथ रहना होगा और अपना faimily buisness भी संभालना होगा। अगर वो सफल नही होता, तो वो वापस विदेश जा सकता है, लेकिन उसे एक कोशिश पूरी ईमानदारी के साथ तो करनी ही होगी, और अगर वो ऐसा नही करता, तो घर से मिलने वाले पैसों पर लगाम लगा दी जायेगी।  अब ऐसी शर्त को हर हाल में मनना अनुज के लिए एक मजबूरी बन गयी थी। वो भारत वापस आ तो गया था, लेकिन यहाँ न तो उसका कोई दोस्त था, न साथी, तो बहुत अकेला पड़ गया था। Office जाना शुरू करने में भी अभी कुछ वक़्त था, तो घर में ही अकेले रह कर ऊब गया था। दादू की सलाह मानते हुए, अकेले ही भारत भ्रमण पर निकलने की तैयारी भी चल रही थी।


डैड :- "अरे तो मैं कहा मना कर रहा हूँ, तुझे जाने से। ये तो बहुत            अच्छी बात है, इससे तू अपना देश तो देख ही लेगा।                    लेकिन बेटा तू यहाँ कुछ भी तो नही जानता है, अकेला                कहाँ भटकेगा। ड्राइवर को तो साथ लेजा, सहूलियत भी              रहेगी और वो तुझे अच्छे से घूम भी देगा।"


अनुज :- "नही डैड!!! I am not a kid now. I can                         manage and handle everything pretty                 well.  अब यहाँ भी कोई शर्त मत लगा दीजियेगा...                   Please!!!!"


           और आख़िरकार बाजवा जी को अनुज के सामने झुकना ही पड़ा। और अनुज अकेले ही निकल पड़ा अपने देश को देखने और समझने। घूमना फिरना तो बस एक बहाना ही समझिये, असल में अनुज घर में रह कर बुरी तरह से ऊब चूका था, और घरवालों के साथ वक़्त बिताना उसे खासा पसंद भी नही था। घरवालों की बातें अनुज को सदियों पुराने ज़माने की लगती थी। वो तो बस अपने डैड की शर्त पूरी होने का इंतेज़ार कर रहा था। दादू का ये भारत भ्रमण का idea भी उसे इसलिए पसंद आ गया, क्योंकि उसे पता था, office शुरू हो जाने के बाद तो उसे और भी बुरे दिन देखने को मिल सकते हैं , इसलिए वो जो ये 10, 12 आज़ादी के दिन मिल रहे थे, उन्हें नही खोना चाहता था। तो बस एक backpack में अपने कुछ कपडे और जरूरत का कुछ सामान, कुछ credit cards और ढेर सारे पैसे लिए, अकेले ही निकल पड़ा था घर से।


        मथुरा, आगरा, ग्वालियर घूमने के बाद आज चौथे दिन अनुज झाँसी पहुंचा। झाँसी से उसका अगला point खजुराहो होने वाला था, लेकिन taxy वाले के कहने पर 1, 2 घंटे ओरछा में बिताना तय हुआ, और अनुज सुबह 10:30 बजे ओरछा पहुँच भी गया। Taxy  को देख कई सारे guides ने अनुज को घेर लिया, लेकिन अनुज ने चुना आलोक को, क्योंकि वो ही उन सभी में अच्छा दिख रहा था, और अनुज का हमउम्र भी था। आलोक ने शुरुआत की ओरछा fort से, और धीरे धीरे आलोक, अनुज को ओरछा के इतिहास और किले की बनावट के बारे में बताता गया और साथ ही साथ अनुज का मन भी मोहता गया। इस तरह का आकर्षण अनुज के लिए कोई खास बात नही थी, अनुज की नजरें ओरछा किले की बनावट और संरचना से ज्यादा आलोक के शरीर को निहार रहीं थीं। वैसे तो इन 4, 5 दिनों में अनुज, आलोक जैसे कई सारे guides से मिल चुका था, लेकिन आलोक की कशिश, उसका कोमल स्वभाव , उसकी महक, अनुज को अपनी और खींचे ही जा रही थीं। अनुज की बदली हुई नज़रें, आलोक को समझ भी आ रहीं थीं, और अनुज का बदला हुआ बर्ताव, आलोक को थोड़ी परेशानी भी दे रहा था। जहाँ अनुज टकटकी लगाए आलोक को घूरे जा रहा था, वंही अनुज से नज़रें चुराये आलोक अपना काम किये जा रहा था। किला घुमाने के बाद , बारी थी राम मंदिर की। आलोक ने अपनी माँ की दुकान से फूल माला दिला कर अनुज को मंदिर में दर्शन करने का रास्ता दिखा दिया, पर अनुज ने अकेले जाने को मना कर दिया, और आलोक को भी साथ चलने को कहा। जिसे आलोक टाल न सका और दोनों ने साथ में राजा राम के दर्शन किये। अब तक दोपहर के खाने का समय हो चला था, आलोक ने भी अनुज को खाना खाने के लिए, वंही बाजार के सबसे अच्छे रेस्टोरेन्ट का पता दिया, और 1 घंटे बाद वही मिलने को बोला। लेकिन अनुज तो आलोक का साथ छोड़ने को ही तैयार नही था, और इसबार भी अपनी जिद मनवाते हुए, वो आलोक को भी अपने साथ ही ले आया। दोनों ने साथ में ही खाना खाया, और फिर आलोक अनुज को बेतवा किनारे ले गया, थोड़ा सा sight seeing अभी बाकी जो था। 


        नदी किनारे का वातावरण अनुज को बहुत भा गया।  River rafting, सैलानिओं की मौज मस्ती, ठंडी हवा और शांत वातावरण उसे इतना पसंद आया की उसने कहीं और जाने से ही इंकार कर दिया और आलोक के साथ वहीँ बेतवा के घाट पर बैठ गया। उसके ऐसा करने की जितनी वजह वहां का वातावरण था, उतना ही आलोक के मन को टटोलना भी। वैसे तो अनुज का आज का सफर खजुराहो तक का था, लेकिन उसने अपने taxy draiver को आज के लिए वहीँ ओरछा में रुकने को कहा। वो आलोक के लिए जो खिंचाव महसूस कर रहा था, ये उसी का कारन था, और अनुज का ये भाव , शारीरक सम्बन्ध बनाने से आगे का भी नही था। ऐसा भी नही था, की अनुज को शारीरक सम्बन्ध बनाने के लिए कोई मिल नही रहा था, अभी आगरा में ही एक esscort service से उसे एक बहुत ही सुन्दर और आकर्षक लड़के के साथ वो सब करने का अवसर मिला था, जिसके लिए वो भारत वापस आने के बाद बहुत तड़प भी रहा था। लेकिन आलोक की शोखी और उसकी कशिश अनुज ने आज तक कहीं और महसूस ही नही की थी। यही एक अहम् कारण था , की अनुज, आलोक से अलग ही नही हो पा रहा था। ये उसके मन की, उसके दिल की भावना थी जो उसे आलोक से बंधे हुए थी, और वंही उसके दिमाग में आलोक के साथ हमबिस्तर होने के ख्याल चल रहे थे। और उन्हीं ख्यालों को ज़मी देने के इरादे से अनुज ने अपने आगे के सफर को वहीँ ओरछा में रोकने का निर्णय भी ले लिया था। वहीँ घाट पर बैठ कर अनुज ने आलोक का मन टटोलना शुरू किया ....


अनुज :- "So!!! Tell me, कभी यहाँ से बहार जाना नहीं                       हुआ??" 


आलोक :- "नहीं कभी जरूरत नहीं पड़ी।"


अनुज :- "So why you doing this job?? You can go               outside and find something good!!!" 


आलोक :- "मुझे कुछ आता भी तो नही न इसके अलावा।  और                   12 वीं पास को कोई क्या नौकरी देगा। जैसा भी है, है                 तो मेरा काम ही ना।"


अनुज :- "So why don't you go for further                             studies?? I am sure you can do batter                   than this!!" 


आलोक :- "जाने दीजिये साहब!! आप बताइए आगे का क्या                       plan है?? आप river rafting भी कर सकते हैं,                   It's good and safe too."       


 अनुज :- "No!!! I feel good here. I don't wanna go                 anywhere. Actualy , I feel good here                     because of you!!! " 


          ये कहते हुए अनुज आलोक की आँखों में देखता है, वो आलोक के मन को पड़ने की भी कोशिश करता है।


आलोक :- "हाँ, यहाँ का माहौल ही ऐसा है, सब को मोह लेता है।"


अनुज :- "माहौल का तो पता नही लेकिन मुझे तुम्हारा साथ बहुत               अच्छा लग रहा है, तुम्हे छोड़ कर जाने का मन ही नही                 हो रहा।" 


         आलोक अनुज की और देखता है, तो अनुज की आँखे सब बयां कर देती हैं, की उसके मन में क्या चल रहा है। आलोक ने भी तो कई सालों इन नज़रो का इंतेज़ार किआ था, लेकिन समाज के और हालातों के कारण अपने इन एहसासों को दबा भी लिया था।और आज जब वो, वो सारी भावनाओ को अनुज की आँखों में देख पा रहा था, तो उन्हें स्वीकार करने से भी डर रहा था, और उन भावनाओ से दूर भाग जाना चाहता था। 


आलोक :- "चलिये sir!! आप इस जगह का आनंद लीजिये, मैं                   थोड़ी देर से आता हूँ, फिर हम बाकी के जो दो spot                   हैं , उन्हें भी देखने चलेंगे।" 


           ये कहकर आलोक वहां से उठ कर जाने लगता है। असल में तो वो बस उन एहसासों से दूर जाना चाह रहा था, जो उसकी दबी भावनाओं को जगा रहे थे। लेकिन अनुज उसे ऐसा करने नही देता, और उसका हाँथ पकड़ कर वंही रोक लेता है।


अनुज :- "Don't go!!! Please!!! Stay here with me.                 I don't know for what, I am attracted                   towards you. I just wanna spent some                 time with you." 


        आलोक अनुज की आँखों में देखता है, और उसे भी वही भावनाएं घेर लेती हैं, जिनकी बात अनुज कर रहा था। और वो वहीँ रुक जाता है।


अनुज :- "Thanks for stay!!! I wanna say                               something to you. I don't know how                     you gonna react on this...... I am gay......                 And I like you. I am being still attracted               towards you, when the first time I saw                 you." 


        आलोक बस अनुज को देखता ही रह जाता है, उसके पास ऐसा कोई जवाब नही जो वो अनुज को दे सके। एहसास तो आलोक के भी सुलग रहे थे, लेकिन जिन भावनाओं को वो बरसों पहले दबा चूका है, उन्हें वापस से एक शक्ल देना, उसके लिए इतना आसान भी नही था। यूँ तो, जब भी अनुज उसे देखता था, एक नए एहसास की आहट आलोक के मन में भी होती थी। और अब जब अनुज ने अपने मन की बात साफ़ लफ्जों में बयां कर दी थी, तो आलोक भी उसे बताना चाह रहा था, की उसपर यु ध्यान दिए जाना, उसे भी अच्छा लग रहा है। अनुज की वो नजरे उसे भी एक नयी दुनियां दिखा रहीं हैं, अनुज के हांथों की छुअन की गर्मी का वो एक नया एहसास, जो आज तक उसने किसी के लिए महसूस नही किआ था। आलोक, अनुज को ये सब बता देना चाहता था, अपनी भावनाएं, अपने एहसास, अपनी चाहत, लेकिन वो सब कुछ अपने मन में दबाये वहां चुप चाप ही बैठा रहा।



 अनुज :- "I know  तुम्हे ये सब अजीब लग रहा होगा। But                    these are my true feelings. I really like                you."


       अनुज ये कह कर आलोक की तरफ देखने लगा, मनो वो आलोक की हाँ का इंतज़ार कर रहा हो। लेकिन आलोक तो अभी भी चुप ही था। और अब आलोक की ये चुप्पी अनुज को बिलकुल नही भा रही थी।


अनुज :- "Please don't sit like that!!! Say                                 whatever  you wanna say, either yes or               no. But say it clearly." 


 आलोक :- "मुझे नही पता ये सही है या गलत, लेकिन मुझे भी                      तुम्हारा इस तरह से देखना, इस तरह से मुझे छूना,                      मुझे अच्छा लग रहा है। मैं बहुत समय से इसी तरह                      का  एक साथी चाह रहा था, जो मुझे अपने मन की                    सारी बातें बताये, मुझे जब भी देखे , तो प्यार भरी                      नजरों से देखे, मेरा हमेशा साथ निभाए। लेकिन ऐसा                   कोई मिलना तो दूर, अगर मैं अपनी ये चाहत किसी                     को बताता भी , तो वो लोग मुझे ही गलत समझते।                     लेकिन जबसे तुम मुझे मिले हो, मुझे सब सही लग रहा                 है। और मुझे भी तुम्हारा साथ अच्छा लग रहा है।


      आलोक कुछ और कहता, इससे  पहले ही अनुज ने उसके माथे पर चूम लिया और उसे अपनी बाहों में भर लिया। दोनों सूरज ढलने तक वहीँ बेतवा के किनारे बैठे रहे और अब तक दोनों ने ढेर सारी बातें भी कर ली थीं। अपने अपने घर परिवारों के बारे में भी एक दूसरे को बता चुके थे और अब तक दोनों के बीच कई आचार विचारों का आदान प्रदान भी हो चूका था। लेकिन वहां कुछ था, जो इस अच्छे दृश्य को पूर्णतः अच्छा नही होने दे रहा था। वो थी अनुज की सोच, ये जो भी बातें अनुज वहां आलोक से कर रहा था, वो सब बस आलोक को रिझाने के लिए कर रहा था। अनुज ने आलोक की तरह अपने परिवार के बारे में आलोक को बताया तो था, लेकिन सिर्फ उतना, जितना आलोक को उसके बिस्तर तक लाने के लिए जरूरी था। अनुज का दिल तो आलोक की सादगी और निर्मलता को देख पा रहा था, लेकिन उसकी दिमाग की दृष्टी ने सब ओझल कर दिया था। और इधर - उधर की तमाम बातें करके अनुज ने आलोक को अपने साथ रात बिताने के लिए भी राज़ी कर लिया था। और वहीँ आलोक इस आधे दिन की मुलाकात को ही प्यार समझ कर , पहली बार अपनी माँ से झूठ बोल कर आ भी गया था अनुज के साथ। दोनों ने रात का खाना भी साथ में ही खाया और रात को होटल के कमरे में दोनों ने काम रास के सभी क्रियाकलापों को अंजाम भी दिया। ये रात जहाँ आलोक के लिए सुखद एहसास लेकर आई थी, उसके इतने वर्षों से दबी भावनाओं को अंगड़ाइयां मिली थीं, वहीँ अनुज के लिए ये बाकि की रातों की तरह ही थी, ज्यादा कुछ खास तो नही था, लेकिन आलोक की शोखी और भोलेपन ने अनुज को मजबूर कर दिया था कि वो आलोक को अपने बिस्तर तक ले आये। और इसमें वो सफल भी हो गया था। अगली सुबह अनुज , आलोक को होटल के कमरे में अकेला सोता छोड़ चल दिया था अपने आगे के सफर पे और आलोक के लिए छोड़ गया था, कमरे की मेज पे कुछ पैसे और ख़ामोशी और कई सवाल, जो सिर्फ आलोक के जागने का इंतज़ार कर रहे थे।


     थोड़े से समय के सुख के लिए, किसी के जीवन के अस्तित्व पर ही सवाल उठा देना क्यों इतना जरूरी हो गया था अनुज के लिए। ये उसका दोष था या उसकी मानसिकता का। अनुज को आलोक को पाने की हसरत क्यों सिर्फ उस बिस्तर तक ही सिमित थी। ये उसका दोष था या उसकी विचारधारा का। जब आलोक उसे इतना पसंद ही आ गया था, की उसके लिए अपने सारे plans को अनदेखा किया जा सके, तो क्यों फिर इस मुलाकात का लक्ष्य बस वो बिस्तर भर मात्र था। ये उसका दोष था, या उसकी संकीर्ण सोच का। 


       इस कहानी के माध्यम से मैं उन दो विचारधाराओं को आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ,  जो आज शायद पूरी तरह से हमें घेरे बैठीं हैं, और कोई भी शायद इन विचारधाराओं के आगे बढ़ कर देखना ही नही चाह रहा है। इस कहानी के माध्यम से मैं ये सन्देश कतई नही देना चाहता की, केवल बड़े शहरों की सोच बुरी होती है, या छोटे शहरों की। दोनों विचारधाराओं के लोग कहीं भी हो सकते हैं। Gay Community के लोग कहीं भी हो, हमें देखने का नजरिया, और हमारे बारे में बनाई गयी सोच, सभी जगह एक जैसी ही होती है। और इसके लिए कहीं ना कहीं हम खुद भी जिम्मेदार हैं, और जिम्मेदार हैं वो दोनों विचारधाराएं जो मैंने इस कहानी में दर्शाने की कोशिश की है। मेरे हिसाब से ये दोनों विचारधाराएं ही गलत हैं, ना तो किसी को अनुज की विचारधारा का अनुसरण करना चाहिए और ना ही आलोक की विचारधारा का। ये दोनों विचारधाराएं ही वो मुख्य कारण हैं, जिनकी वजह से पूरी gay community को गलत नजर से देखा जाता है। हो सकता है कि मेरी ही विचारधारा सम्पूर्ण सही ना हो, लेकिन मैं ये दावे के साथ कह सकता हु की मैं पूर्णतः गलत भी नही। 



     आगे की कहानी क्या मोड़ लेती है, और मैं आपको किस विचारधारा की और ले जाता हूँ, जानने के लिए बने रहिये अनुज और आलोक के साथ।  




Lots of love
Yuvraaj ❤️ 

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