Hello friends,
I am again here to present my new story, hope you like it as well.
ये कहानी है आज से 30 साल पहले की, जब इस समाज मे समलैंगिकता को बहुत ही ज्यादा बुरी नज़र से देखा जाता था। खैर, उस नज़रिए में तो आज भी कुछ ज्यादा बदलाव नही आया है। लेकिन तब तो बात कुछ और ही थी, तब तो समलैंगिकता एक कानूनी अपराध भी हुआ करता था। और उस पर ये समाज और इसकी बाते, किसी भी समलैंगिक इंसान को दोहरी ज़िन्दगी जीने पर विवश कर ही देती थीं। आपको भी अब मैं एक पुराना किस्सा सुनाता हूँ, जो 1990 के आस पास का है, जब इस देश मे अपने मन की बात किसी को बताने से ज्यादा आसान, नए नए आये कंप्यूटर को चलाना सीखना था।
नीरज :- (फ़ोन पर अपने दोस्त से बात करते हुए) "कोशिश करता हूं आने की!!"
मधुर :- "कोशिश नहीं नीरज!!! तुझे आना है बस, कैसे भी!"
नीरज :- "हां देखता हूं!!"
मधुर :- "अरे फिर देखता हूं!!! तुझे आना है, मतलब आना है। कोई बहाना नहीं चलेगा।"
नीरज :- "हां!! ओके बाय!!"
उसने फोन रख दिया। दिलो-दिमाग में गहरी उथल-पुथल मच चुकी थी। अब आगरा जाना पड़ेगा। वह इस शहर में जाने से जितना बचना चाह रहा था, अब जाना उतना ही जरूरी हो गया था। उसका कोई बहाना अब नहीं चलने वाला था। मधुर कुछ सुनने को तैयार ही नहीं था। मधुर की बेटी की शादी थी, ऐसे में उसका प्रिय मित्र ना आए, यह कैसे हो सकता था भला??? बरसों बाद तो मुलाकात का एक मौका मिला था। असमंजस की स्थिति में नीरज अपनी उंगली में पड़ी अंगूठी को इधर-उधर घुमाने लगा।
नाजुक सी सोने की अंगूठी, जिसमें बीच में नीले रंग का एक बड़ा सा झिलमिलाता हुआ जरकिन का नग लगा हुआ था। यह अंगूठी जो कभी अविनाश ने दी थी, उसे तोहफे में। जिसे वह शादी के इतने साल बाद भी नहीं उतार पाया था। शादी के वक्त अगर किसी ने उससे पूछा भी था, कि वह अपनी सगाई की अंगूठी की जगह, यह अंगूठी क्यों पहनता है?? तो उसने सिर्फ यही जवाब सबको दिया था, कि सगाई वाली अंगूठी डायमंड की है, और वह अक्सर अंगूठी उतार कर इधर-उधर रख देता है, ऐसे में अगर खो गई तो नुकसान हो जाएगा। जबकि यह हल्की है, और इसे बरसों से पहनने की आदत है। लेकिन वह अंगूठी ना उतारने के पीछे की असल वज़ह तो सिर्फ नीरज का दिल ही जानता था।
उसके जेहन में वह आकर्षक चेहरा उभरने लगा, जिसकी याद आज भी नासूर बनकर उसके दिल में पल रही थी। लंबा कद, गोरा रंग, सौम्य - शालीन व्यक्तित्व । अविनाश उस बैच का सबसे हैंडसम लड़का था। बहुत कम बोलता था, अक्सर डायरी में न जाने क्या लिखता रहता था। कॉलेज में जब नीरज ने दाखिला लिया, तो जिस शख्स ने सबसे पहली बार उसका ध्यान आकर्षित किया था, वह अविनाश था। कई बार नीरज की उस पर नजर पड़ी, तो उसने अविनाश को अपनी ओर देखते पाया। निगाह मिलते ही, झेंप कर वह दूसरी ओर देखने लगता था।
नीरज दुबला पतला, आकर्षक युवक था। गेहूंआ रंग, सलीके से बने बाल, स्मार्ट, भव्य व्यक्तित्व, उसका खुशमिजाज व्यवहार, हर बात पर खिलखिलाना, किसी को भी अपनी ओर आकर्षित कर लेता था। कॉलेज में आते ही उसकी, काव्या से दोस्ती हो गई थी। देखने में काव्या गोरी रंगत की सामान्य सी दिखने वाली युवती थी।
उस दिन भी दोनों खाली समय में कुछ और मित्रों के साथ महाविद्यालय के परिसर में साथ बैठे गप्पे मार रहे थे। इधर उधर की बातें करते हुए, चर्चा का विषय अपने सहपाठियों पर गया। कौन किस में रुचि लेता लग रहा है, कौन लल्लू लगता है, कौन बहुत डेशिंग है। यही सब बातें हो रही थी। तभी काव्या ने शर्माते हुए बताया, कि उसे भी कोई पसंद आ गया है। बहुत पूछने पर बोली कि उसे अविनाश बहुत पसंद है। वही लड़का जो आज ब्लू जींस और ब्लैक शर्ट में कॉलेज आया था।
यह सुनकर नीरज का मन आहत हो उठा। जैसे उसके अधिकार क्षेत्र में कोई और अनाधिकृत रूप से प्रवेश कर रहा हो। तभी काव्या ने उसके समक्ष प्रस्ताव रखा, कि वह अविनाश के साथ उसकी दोस्ती करवा दे। नीरज असमंजस में पड़ गया, काव्या से कैसे कहता, कि अविनाश तो उसके हृदय में धड़कन बनकर धड़क रहा है। पल भर सोचता रहा, फिर उसने निश्चय किया कि वह काव्या से मित्रता कर लेने का प्रस्ताव लेकर अविनाश के पास अवश्य जाएगा। स्वयं के लिए तो कुछ कहने का प्रश्न ही नहीं उठता था। उन दिनों में लड़कों का लड़कों के लिए ह्रदय धड़कने की बात ही, आसमान टूट गिरने की बात के बराबर हुआ करती थी। और उस पर नीरज तो अन्य युवकों से भी बढ़कर संकोची था।
तभी काव्या ने नीरज को चुटकी काटी, तो वह चौंक पड़ा। सामने से अविनाश निकल रहा था। नीली जींस और उस पर काली शर्ट उसके उजले रंग पर बहुत फ़ब रही थी। तभी ना जाने अविनाश किन ख्यालों में गुम, वहाँ रुक गया। जेब से उसने नन्ही सी डायरी और पेन निकाला और कुछ लिखने लगा। तभी "एक्सक्यूज मी" कहता हुआ नीरज तेज कदमों से उसकी ओर बड़ा। अविनाश ने निगाह उठाई तो नीरज को देख कर उसके चेहरे पर पल भर को एक चमक सी दौड़ गई। नीरज ने उससे कहा कि उसकी एक मित्र उससे मित्रता करना चाहती है। जब अविनाश ने उस मित्र का नाम जानना चाहा, तो नीरज ने काव्या की ओर इशारा कर दिया। अविनाश ने उधर देखा तो उसका चेहरा एकदम भाविन था। नीरज समझ नहीं पाया कि वह क्या सोच रहा है। जब उसने पुनः प्रश्न किया, तो अविनाश ने इस प्रस्ताव पर सहमति की मुहर लगा दी। नीरज को महसूस हुआ, जैसे उसके हृदय में कहीं कुछ चुभ सा गया है। उसे ना जाने क्यों आशा थी कि शायद अविनाश इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर देगा। परंतु उसकी सहमति उस उम्मीद पर तुषारपात कर गई थी। फिर कुछ संभल कर उसने अपना परिचय भी दिया, कि उसका नाम नीरज है। तो अविनाश बड़े ही खुशगवार ढंग से मुस्कुराया और बोला, वह उसे जानता है। नीरज को उसका जवाब बड़ा अच्छा लगा। वह शरारत से मुस्कुराया।
नीरज :- 'जानकर अच्छा लगा कि आप कम से कम मुझे जानते तो हैं!!"
अविनाश :- "हां कुछ लोग बहुत जल्दी सबका ध्यान अपनी ओर खींच पाने में सक्षम होते हैं!!"
नीरज :- "ओह!! अपनी यह क्वालिटी तो मुझे पता ही नहीं थी।"
अविनाश :- (मुस्कुराकर) "ओके चलता हूं। सी यू टुमारो।"
नीरज :- "अरे काव्या से हेलो तो कह दीजिए।"
नीरज ने कहा तो अविनाश ने एक बार अपनी कलाई पर बंधी घड़ी पर दृष्टि डाली। फिर उसके साथ काव्या की तरफ बढ़ गया। थोड़ी देर वो लोग आपस में बातें करते रहे। फिर अविनाश चला गया।
"तू सच में बहुत अच्छा दोस्त है" अविनाश के जाते ही काव्या ने नीरज को गले लगा लिया। इसके बाद चल निकला बातों का सिलसिला। मौका मिलते ही वे तीनों बातें करने बैठ जाते। अविनाश को शेरो शायरी के साथ, छोटे-छोटे गिफ्ट्स, कार्ड्स देने का बहुत शौक था। अक्सर वह काव्या को कार्ड और गिफ्ट देता था। पर नीरज को हैरानी होती थी, जब साथ में उसके लिए भी कार्ड और गिफ्ट होता था। बातों का मौका बहुत कम मिलता था, इसलिए दिल की बात कहने के लिए खत का सहारा लिया जाता था। अब तक सभी सहपाठियों के बीच काव्या और अविनाश की ही चर्चा थी। जब काव्या के साथ अविनाश, नीरज को भी खत लिखा करता था, तो नीरज सोचता था कि, उसकी दोस्त पर क्या गुजरती होगी यह सब देख कर!! बेशक अच्छा तो नहीं लगता होगा। पर काव्या ने ऐसा कुछ कभी जाहिर नहीं होने दिया था।
एक दिन पूरे सप्ताह भर की अनुपस्थिति के बाद नीरज कॉलेज गया। तो साइकिल स्टैंड पर अविनाश ने उसे रोक लिया। और ना आने का कारण पूछने लगा। नीरज ने बताया कि स्वास्थ्य ठीक ना होने के कारण वह नहीं आ पाया था। कुछ देर इधर-उधर की बात करके उसने बताया कि, 1 दिन पहले बात करते हुए काव्या ने उसे कहा है, कि वह अविनाश से प्रेम करने लगी है। नीरज यह सुनकर चौक पड़ा। क्योंकि काव्या ने उससे तो कुछ नहीं कहा था इस विषय में। अविनाश काफी गंभीर था, और बताने लगा कि उसने तो इस विषय में अब तक कुछ सोचा नहीं है। वह नीरज से सुझाव मांगने लगा, कि इस स्थिति में उसे क्या करना चाहिए। नीरज ने उसे आश्वस्त किया, कि वह काव्या से बात करके पता लगाएगा कि उसके मन में क्या है। अविनाश तो उसके जवाब से संतुष्ट होकर चला गया, पर नीरज के दिलों दिमाग में हलचल मच गई। यह सब सुनकर उसे अच्छा नहीं लगा था। उसने अपना स्कूटर स्टैंड पर लगाया, और कक्षा में जाकर काव्या के आने का इंतजार करने लगा।"
काव्या आई तो नीरज को देखकर प्रसन्न हो गई। उसके ना आने का कारण पूछा, वजह बता कर थोड़ी देर औपचारिक बातें होती रहीं। फिर नीरज ने उससे आखिर पूछ ही लिया, कि वह अविनाश के साथ किस हद तक गंभीर है। काव्या के यह कहने पर कि, अच्छा मित्र है, बस इससे ज्यादा वह कुछ नहीं सोच सकती, क्योंकि उसके परिवार वाले काफी पुरानी सोच रखते हैं। इस पर नीरज ने पूछा कि यदि ऐसा है, तो उसने अपने प्रेम का इजहार क्यों किया?? नीरज के मुंह से यह सुनते ही काव्या भड़क गई।
काव्या :- (झल्लाते हुए) "अरे यार बात करते हुए थोड़ा सेंटी हो गई थी, तो बोल दिया आई लव यू। पर उसने भी तुझे आते ही बता दिया??"
नीरज :- "वह परेशान है!!"
काव्या :- "यह लो!!! इसमें परेशानी की क्या बात है?? मैंने कौन सा उससे शादी करने को बोला है??"
नीरज :- "पर काव्या ऐसी बातें यूं ही नहीं बोल दिया करते!!"
काव्या :- "एक बात बता नीरज, तुझे प्रॉब्लम क्या है??? क्या मैं हर बात तेरी परमिशन लेकर बोला करूं???"
नीरज :- "तू तो बेकार ही नाराज हो रही है!!"
काव्या :- "बेकार क्यों?? वह जब बात करेगा, तो तेरे साथ करेगा। मुझे कार्ड या गिफ्ट देगा, तो तुझे भी देगा। मुझे लेटर लिखेगा, तो तुझे भी लिखेगा। कभी अकेले में मैं कुछ कहूं, तो वह झट से तुझे बता देगा, और तू पूछताछ करने चला आएगा। चल क्या रहा है तुम लोगों के बीच में??"
नीरज :- "काव्या!!!" (नीरज काव्या के उखड़े स्वर को सुनकर हैरान रह गया)
काव्या :- "माना कि तूने हमारी फ्रेंडशिप करवाई है, पर इसका मतलब यह तो नहीं कि अब हमेशा तेरे साए में ही जीना होगा मुझे!!"
नीरज :- (हैरानी से काव्या को देखते हुए) "सॉरी मुझे नहीं पता था कि तू इतना बुरा मान जाएगी।"
काव्या :- "बुरा मानने वाली बात ही है नीरज।"
नीरज :- "ओके चलता हूं!! देर हो रही है।" (कहकर नीरज वहां से उठ खड़ा हुआ)
नीरज ने इस तरह के प्रतिउत्तर की उम्मीद बिल्कुल भी काव्या से नहीं की थी। इसके बाद वह काव्या से दूरी बरतने लगा। काव्या भी उससे कटी कटी सी रहने लगी। दोनों ही अब दोस्तों के अलग-अलग समूहों में रहने लगे। बातचीत भी बिल्कुल बंद हो गई थी। कभी-कभी सामने पड़ने पर औपचारिकतावश मुस्कुरा देते थे। अविनाश ने उन दोनों को अलग-अलग देखा, तो बात करने की कोशिश की। पर काव्या उसकी भी उपेक्षा करके वहां से चली गई। कई दिन इसी तरह से गुजरे, फिर एक दिन रास्ते में अविनाश ने नीरज को रोक लिया और कहीं चल कर बात करने पर दबाव डालने लगा। बहुत मना करने पर भी जब वह नहीं माना, तो नीरज उसके साथ एक रेस्टोरेंट में चला गया।
वहां पहुंचकर अविनाश ने पहला प्रश्न यही किया, कि उन दोनों दोस्तों के मध्य क्या हुआ है? वे दोनों एक साथ क्यों नहीं दिखाई देते? पहले तो नीरज ने टालने की कोशिश की, फिर अविनाश के बहुत जोर देने पर, बता दिया, कि उस दिन उसके रिश्ते की गंभीरता के विषय में पूछ लेने पर काव्या बहुत बुरा मान गई थी। साथ ही उसने अविनाश को आगाह भी कर दिया कि, काव्या उसे लेकर जरा भी गंभीर नहीं है। जिस दिन उनका आठ छूटेगा, वह पलट कर नहीं देखेगी। इस पर अविनाश ने बताया कि उसे भी यही शक था, इसलिए उसने नीरज की मदद मांगी थी। उसने यह भी बताया कि, वह काव्या की ओर जरा भी आकर्षित नहीं था, पर उसके मित्रता प्रस्ताव को महज इसलिए स्वीकार कर लिया था, क्योंकि उसके पास यह प्रस्ताव लेकर आने वाला नीरज था। और वह उसके लिए कुछ भी कर सकता था। यह सुनकर नीरज आश्चर्य में पड़ गया। उसकी खुशी का ठिकाना ना रहा। उसने एक नए दृष्टिकोण से अविनाश की ओर देखा, तो उसकी आंखें बहुत कुछ कहती नजर आईं।
फिर अविनाश ने यह राज भी खोला की काव्या ने उससे अपने दिए गए पत्र व कार्ड्स वापस मांग लिए थे। अविनाश को यह बहुत नागवार गुजरा था, कि काव्या ने उस पर भरोसा नहीं किया था। नीरज को भी यह जानकर बहुत बुरा लगा था। अविनाश जैसा इंसान क्या इन चीजों का कोई गलत इस्तेमाल कर सकता था??? लेकिन उस दिन की मुलाकात ने, दोनों के ही बीच मे सबकुछ बदल सा दिया था। जहाँ नीरज अविनाश के लिए अपनी भावनाओं से पहले ही अवगत था, अब उसे अविनाश की नज़रों और उसकी बातों में खुद के लिए एक अलग ही जगह साफ साफ दिखाई देने लगी थी। और धीरे धीरे समय के साथ दोनों ने बिना एक दूसरे के सामने अपने मन की बातों का इज़हार कर, एक दूसरे को अपना भी लिया था।
अब नीरज मधुर और उसके कुछ और दोस्तों के साथ रहने लगा था। इस बात का अविनाश और नीरज दोनों ने खास ख्याल रखा था, कि कॉलेज में वे कोई भी बात आपस में ना करें। पर अक्सर बातें और मुलाकातें होने लगी। कभी रेस्टोरेंट में, कभी उसके घर, तो कभी अविनाश के घर। नीरज के घर भी सभी लोग अविनाश को अच्छे से जानते थे, और अविनाश के साथ नीरज की दोस्ती को लेकर भी उन्हें कोई समस्या नहीं थी। बल्कि सभी अविनाश को बहुत पसंद भी करते थे। उधर अविनाश के यहां भी यही माहौल था। अविनाश बहुत अच्छा कुक भी था। कभी-कभी साउथ इंडियन डिश बनाता, तो नीरज को घर जरूर बुलाता था। और नीरज हंसकर कहता था।
नीरज :- "जानते हो अवि तुम मुझे क्यों पसंद हो, क्योंकि तुम कुकिंग बहुत अच्छी करते हो।"
अविनाश :- "और मुझे तुमने आज तक एक कप चाय भी बना कर नहीं पिलाई है। नीरज कुछ सीख लो वरना, शादी के बाद तुम्हारी पत्नी तुमसे बहुत नाराज रहा करेगी!!!"
नीरज :- "क्या करना है?? मैं गृह कार्य में दक्ष इंसान से शादी करूंगा। मेरी शर्त यही होगी कि, लड़का सुंदर सुशील और घर के कामकाज करना जानता हो, कमाने का काम तो मैं कर ही लूंगा।"
अविनाश :- "लड़का????? ऐसा कह पाओगे??? और किस बिचारे की किस्मत फूटेगी तुमसे शादी करके।"
नीरज :- "एक बेचारे को तो आजकल मैं परख भी रहा हूं।"
अविनाश :- "अच्छा!!! तुम्हें पता भी नहीं लगेगा कि, मैं परिंदा बनकर कब फुर्र हो जाऊंगा।"
नीरज :- "सबसे पहले परिंदे के पर ही कतर दूंगा, उड़ने की सोच भी नहीं पाएगा।"
नोकझोंक यूं ही चलती रही और वक़्त तेजी से गुजरता गया। ऐसे ही स्नातक का अंतिम वर्ष भी निकल गया, और मुलाकातें बहुत कम हो गई। अविनाश ने कॉलेज छोड़ दिया और जीविका कमाने की फिक्र में लग गया। पिता बैंक मैनेजर के पद से सेवानिवृत्त हो चुके थे, और बड़ा भाई कुछ करता नहीं था। तो घर को चलाने की सारी जिम्मेदारी अविनाश के ही कंधे पर थी। उधर नीरज ने भी एम ए के साथ टीचिंग भी शुरू कर दी थी। और उन दिनों कंप्यूटर सीखने पर जोर दिया जाने लगा था, तो उसने भी कंप्यूटर कोर्स जॉइन कर लिया था। समय की बहुत कमी हो गई थी। अब संपर्क एकदम से टूट ही गया था। दुनिया भर की बातें हुई थी, दोनों के मध्य, सिर्फ एक बात को छोड़कर। चाहत का इकरार किसी ने भी नहीं किया था। नीरज ने भी बिना इकरार किए कई कोशिशें तो की थी, लेकिन अविनाश ने अपनी उलझनो के चलते, नीरज की उन कोशिशों पर ज्यादा ध्यान भी नहीं दिया था।
समय की कमी की वजह से नीरज ने अविनाश के घर भी जाना बंद कर दिया था। और इसी बीच वे लोग किराए का मकान छोड़कर अपने नए घर में शिफ्ट कर गए थे। जो नीरज के घर से काफी दूर था। अविनाश ने कभी उसे जोर देकर आने को भी नहीं कहा था। "क्या सचमुच अविनाश नाम का परिंदा उड़ चुका था??? जब वह यह सोचता था, तो उसकी आंखें भीग जाया करती थी। आखिर क्या है अवि के मन में??? क्यों मुझसे दूर होता जा रहा है??? क्या उसकी जिंदगी में कोई और आ चुका है??? या वो मेरे लिए वैसा महसूस ही नही करता, जैसा मैं उसके लिए करता हूँ??" ढेरों सवाल थे नीरज के मन मे, जिनका जवाब या तो अविनाश को पता था, या भगवान को।
जब तन्हा बैठता बेचैनियां हावी होने लगती थी। उस वक़्त अविनाश के घर फोन था, पर नीरज के यहां तब तक नहीं लगा था। एक दो बार उसने पीसीओ जाकर फोन किया भी, तो कभी आंटी और कभी भैया ने फोन उठाया। औपचारिक बातें करके उसने फोन रख दिया। बार-बार फोन करने में झिझक लगती थी, जबकि यह भी निश्चित ना हो कि फोन उठाने वाला शख्स कौन होगा। अक्सर अविनाश के पुराने खतों का ढेर उठा कर बैठ जाता, उन्हें पड़ता और पुरानी बातें याद करके सिसकता रहता। उसके ढेरों कार्ड्स, गिफ्ट्स, पर्ची पर लिखकर दी हुई शेरो शायरी। सब बड़ा संभाल कर रखी हुई थी। उसे याद आता, कैसे एक बार अविनाश के देरी से कॉलेज आने पर, उसने नाराज होकर मुंह फेर लिया था। अविनाश ने कई बार उसे देख कर मुस्कुराया, तो उसने शिकायती अंदाज से घूर दिया। किसी के सामने वे बात करते नहीं थे। इसलिए हर बात चुपके से खतों के माध्यम से ही होती थी। नीरज के अभिन्न मित्र मधुर के सिवा किसी को उनके मध्य पनपे इस अनुरागात्मक संबंध की जानकारी नहीं थी। और उस समय के हिसाब से, मधुर काफी खुले विचारों का व्यक्ति था, तो उसे इस रिश्ते से कोई परहेज भी नही था। और वो उन दोनों की काफी मदद भी किआ करता था। उस दिन अविनाश ने मधुर के हाथों एक छोटा सा कार्ड भिजवाया। जिसमें सिर्फ दो पंक्तियां लिखी हुई थी।
बार-बार पढ़िए हमें, न फेंकिए इस कदर,
हम आपके दोस्त हैं, कोई शाम का अखबार नहीं।
यह पढ़ते ही उसके होठों पर एक प्यारी सी मुस्कान छा गई। उसने निगाह उठाकर उसे देखा तो मानो वह निहाल हो गया। कितनी ही बार अविनाश उसकी उसके स्कूटर की डिक्की में सुर्ख गुलाब अटका जाता, जिसे नीरज बड़े यत्न से किताबों में सहज लेता। आहिस्ता आहिस्ता अविनाश कब उसके दिल की गहराइयों में बस चुका था, उसे खबर भी ना हुई थी। रिसता हुआ जख्म नासूर का रूप लेने लगा था, और जख्म देने वाले को खबर भी नहीं थी। नीरज ने खुद को बहुत व्यस्त कर लिया था, ताकि उसे वो पुराने किस्से, वो पुरानी यादें, परेशान ना करें। पर रात की तन्हाई में वे उसे जकड़ ही लेते थे। पूरी रात आंखों में गुजर जाती, तकिए में जज़्ब हुए आंसू, कितनी ही बेचैन रातों के खामोश गवाह बन जाते थे।
एक दिन संडे को उसकी छुट्टी थी, और दिन काटना मुश्किल लग रहा था। बेचैनी के आलम में वह बेमकसद घर से निकल पड़ा। निगाहे हर जगह उस एक चेहरे को ही ढूंढ रही थी, कि काश वह कहीं से आ जाए। "नीरज" एक जानी पहचानी हुई आवाज आई, पलट कर देखा तो बाइक पर अविनाश बैठा हुआ मुस्कुरा रहा था। साथ में उसका कोई दोस्त भी था।
नीरज :- (थरथराती आवाज़ में) "वॉट अ प्लेज़ेंट सरप्राइज अवि!! आई मिस यू अलॉट!!"
अविनाश :- "मी टू!!! मीट माय फ्रेंड, वासु!"
नीरज :- (वासु की और हाँथ बढ़ाते हुए) "हेलो!!"
वासु :- (मुस्कुरा कर) "अवि ने बहुत कुछ बताया है आपके बारे में, मिलने की बड़ी इच्छा थी। चलिए आज मुलाकात भी हो गई।"
वासु ने ऐसा बोला तो सुनकर नीरज को बहुत अच्छा लगा।
अविनाश :- "कहां जा रहे हो??"
नीरज :- "यूं ही बस!!"
अविनाश : "टाइम है???"
नीरज :- "हाँ, बोलो ना!!!"
अविनाश :- "पास ही वासु का घर है, वहाँ चलें???"
नीरज :- (एक पल सोचकर) "हाँ!! चलते हैं।"
कितना कुछ था कहने को, पता नहीं कुछ कहने का मौका भी मिलेगा या नहीं। पर वह मुश्किल से हाथ आए इस मौके को छोड़ना नहीं चाहता था। वासु के परिवार में सभी बहुत प्यार से उससे मिले। मालूम पड़ता था, कि अविनाश के उनसे घनिष्ठ संबंध हैं। नीरज सबसे हंस बोल तो रहा था, पर उसकी बेचैनी चेहरे से साफ झलक रही थी। फिर एक-एक करके वे सभी उन दोनों को वहां अकेला छोड़ कर चले गए।
अविनाश :- "क्या सोच रहे हो???"
नीरज :- (भरे गले से) "अवि क्या तुम्हें कभी मेरा ख्याल नहीं आता?? बिल्कुल भुला दिया है तुमने मुझे???"
अविनाश :- "क्या तुम्हें लगता है कि ऐसा हो सकता है??"
नीरज :- "तो क्या वजह है इस बेरुखी की??"
अविनाश :- "बेरुखी नहीं है नीरज सिर्फ मजबूरी है। जानता हूं कि तुम्हारे जहन में इस वक्त ढेरों सवाल है, पर फिलहाल में जवाब देने की स्थिति में नहीं हूं।"
नीरज :- "जवाब के लिए कब तक इंतजार करूं अवि??"
अविनाश :- (नज़रे चुराते हुए) "पता नहीं!!!!! अरे तुम्हारा तो जन्मदिन आ रहा है 2 दिन बाद, बताओ कहां ट्रीट दे रहे हो??"
नीरज :- "बोलो कहां चाहिए??"
अविनाश :- "चलो उस दिन हम ढेर सारा वक्त साथ गुजारेंगे। ओके, पहले एक मूवी देखेंगे, फिर लंच करेंगे।"
नीरज :- (चेहरे पर छाई खुशी के साथ) "ओके!!"
जब नीरज अविनाश से विदा लेकर घर आया, तो 2 दिन का इंतजार करना भारी पड़ने लगा। कब वह घड़ी आएगी जब वह प्रिय व्यक्ति उसके पास होगा, ढेरों बातें होंगी, गिले-शिकवे, बहुत कुछ था कहने सुनने को। सदियों के समान एक-एक पल गुजरा। जन्मदिन पर बहुत उत्साहित था वह। बहुत समय बाद उसने खुद को संवार कर आईने में देखा, अपने ही प्रतिरूप पर मुक्त हो उठा। उसने नई नीले रंग की शर्ट और वाइट पेंट पहना था। बाहर निकलने को हुआ, तो फिर से आईने में देखा। "नहीं!!! ऐसे नहीं जाऊंगा"। थोड़ा सोच विचार कर, ब्लू जीन्स और लाइट येलो रंग की टीशर्ट पहन ली।
मम्मी :- "अरे अच्छा तो लग रहा था नए कपड़ों में, फिर बदल क्यों लिए??"
नीरज :- (घर से बाहर आते हुए) "यूं ही बस, मन नही किआ उन्हें पहनने का।"
हालांकि उसे खुद को भी वजह समझ नहीं आ रही थी। पिक्चर हॉल पहुंचा, तो अविनाश उसके इंतजार में बाइक पर बैठा था। उसे सर से पांव तक निहारा, फिर कुछ अलग अंदाज में मुस्कुरा दिया।
अविनाश :- "हैप्पी बर्थडे!!"
नीरज :- "थैंक्स!! ऐसे क्यों मुस्कुरा रहे हो??"
अविनाश :- "ऐसे मतलब??"
नीरज :- "तुम्हारी स्माइल कुछ कह रही है, बहुत राज भरी लग रही है??"
अविनाश :- "हम्ममम्म!!! लीव इट!!"
नीरज :- "क्यों बताओ ना क्या हुआ???"
अविनाश :- "पता है, आने से पहले मैं शेव कर रहा था। तो ख्याल आया कि तुम आज क्या पहन कर आओगे। फिर ख्वाहिश हुई कि तुम ब्लू जींस और येलो टीशर्ट में आओ, इसमें तुम मुझे बहुत अच्छे लगते हो।
नीरज :- (आश्चर्य से) "तुम्हें हैरानी होगी अवि, कि मैंने आने से पहले दूसरे कपड़े पहने थे। फिर न जाने क्यों उन्हें पहन कर आने का दिल नहीं हुआ। तो मैंने यह कपड़े डाल लिए।"
अविनाश :- "देखो इसे कहते हैं टेलीपैथी!!"
नीरज :- "हाँ सचमुच, उस दिन भी मैं तुमसे मिलने को बेकरार था, यूँही घर से निकल पड़ा था, और तुम मुझे रास्ते मे मिल भी गए।"
अविनाश :- "हाँ नीरज, हमारा रिश्ता बेमिसाल है।"
दोनों सिनेमाघर में जा बैठे, और पिकचर भी शुरू हो गई। दोनों के बीच की खामोशी को नीरज ने ही तोड़ा।
नीरज :- "तुमने कहा बेमिसाल रिश्ता??? इस रिश्ते में इतनी तकलीफ़ मेरे ही हिस्से क्यों है अवि??? इस कदर बेचैनी मेरी जान ले लेगी!!"
अविनाश :- "ख़ामोश!!! ऐसी बातें मत करो नीरज, ये दिन भी गुज़र जाएंगे।"
नीरज :- (साँस छोड़ते हुए) "हाँ!! वक़्त कब रोके रुका है, निकल ही जायेगा।"
अविनाश :- "आज इतनी ना उम्मीदी भरी बातें मत करो। जो होता है अच्छे के लिए होता है। अपना बर्थडे गिफ्ट नहीं देखोगे।"
कहते हुए उसने एक नाजुक सी अंगूठी निकाली, जिसके बीच में लगा बड़ा सा जरकिन का नग चमक रहा था। आहिस्ता से नीरज की अनामिका में पहना दी।
नीरज :- "सो ब्यूटीफुल!!"
अविनाश :- "खासतौर पर तुम्हारे लिए ऑर्डर देकर बनवाई थी।"
नीरज :- "आई लव इट!!"
अविनाश :- (शरारती अंदाज में) "और मुझसे???"
नीरज :- (कृत्रिम गुस्से से) "तुम इस लायक नहीं!!"
अविनाश :- (मायूसी से) "सच में?"
अविनाश ने उदास होकर कहा, फिर खामोश हो गया।
नीरज :- "अरे तुम तो उदास हो गए, मजाक कर रहा था यार। अब हर बात यूं दिल पर मत लो।"
दोनों हाथों में हाथ लिए बैठे रहे, पर खामोशी पसर गई थी। नीरज डबडबाई आंखों से स्क्रीन पर आंखें जमाए रहा। और अविनाश ना जाने किन ख्यालों में गुम था। इंटरवल के बाद इधर-उधर की बातें होती रही, पर मन की बात कहने से दोनों बचते रहे। दिन फिर पहले की तरह ही गुजरने लगे, राते सिसकती रहीं। कितने ही अनसुलझे सवाल थे, लेकिन जवाब कौन देता। घर में अब नीरज की शादी के लिए लड़की की तलाश तेज हो गई थी। चाह कर भी वह कुछ नहीं कर सकता था। आखिर किस बिनाह पर मना करता सब को। अविनाश ने भी तो आज तक उससे कुछ कहा ही नहीं था। काश कि कभी बताता कि उसके दिल में है क्या। भविष्य को लेकर क्या सोचता है वह। एक दिन नीरज की विवाहिता बड़ी बहन, जो आगरा में ही रहती थी। घर आई, तो उसे बताया, कि उन्हें एक दिन रास्ते में अविनाश मिला था, और उसने बोला था कि नीरज को उसे कॉल करने के लिए बोलिएगा। पर वह उसे यह बात बताना भूल गई थी। यह सुनकर वह बेचैन हो उठा। कुछ दिन पहले ही उसके घर में फोन लग गया था। बड़ी बेकरारी से दिन गुजरा, उसने रात में मौका मिलते ही, अविनाश का नंबर डायल किया। "हैलो!!" उस तरफ से फिर से उसकी मां थीं।
नीरज :- 'नमस्ते आंटी!! नीरज बोल रहा हूं!!!"
अविनाश की मम्मी :- "नमस्ते बेटा!! कैसे हो? अब तो तुम ना घर आते हो ना फोन करते हो??"
नीरज :- "जी मैं ठीक हूं!! टाइम ही नहीं मिलता। पढ़ाई, टीचिंग इन सब में ही पूरा दिन निकल जाता है।"
अविनाश की मम्मी :- "अच्छा है बिजी हो। खाली दिमाग शैतान का घर बन जाता है, जैसे हमारे बेटे का बना हुआ है।"
नीरज :- "अवि घर पर है आंटी???"
अविनाश की मम्मी :- "नहीं बेटा। वो जयपुर गया है किसी काम से। कोई खास बात???"
नीरज :- "नहीं बस यूं ही सोचा हालचाल ले लूँ।"
कहकर उसने बात टाल दी। पर मन में बड़ी कोफ्त हुई कि जब फोन करो कभी नहीं मिलता। मन फिर मायूस हो गया। "बहुत हो गया अब मैं भूल जाऊंगा उसे। जब उसे मेरी कोई परवाह ही नहीं है, तो मैं क्यों पागल हो रहा हूं। आज से मैं उसे अपनी जिंदगी से निकाल फेंकता हूं।" वह बड़बड़ाने लगा। उसने अविनाश के सारे ख़त, तस्वीर और उपहार जला दिए। किताबों में सूखे हुए गुलाब के फूल मसल कर चूर चूर कर दिए। और सारी रात रोते हुए गुजार दी।
कुछ दिन बाद नीरज के घर वालों को एक रिश्ता बहुत ही पसंद आया। और दोनों पक्षों की सहमति से शादी तय कर दी गई।वह लड़की मुरादाबाद के रहने वाली थी। अतः तय हुआ कि शादी वहीं जाकर की जाएगी, और अपने परिचितों के लिए सगाई व प्रीति भोज का कार्यक्रम आगरा में करने का निर्णय लिया गया। शादी में ज्यादा दिन नहीं थे, अतः तेजी से तैयारियां होने लगी। खरीदारी और सब को निमंत्रण देने के काम में दिन कैसे उड़े जा रहे थे पता ही ना लगा। अविनाश को बुलाए या ना बुलाए, वह कुछ निश्चय नहीं कर पा रहा था। आखिरकार सगाई से एक दिन पहले, उसने अविनाश को निमंत्रित करने का फैसला ले लिया। खाने से निपट कर उसने धड़कते दिल से फोन लगाया। "हेलो!!!" इस बार अविनाश की आवाज थी।
नीरज :- "हेलो.....अवि??"
अविनाश :- (हैरानी से) "हां नीरज???"
नीरज :- "हाँ"
अविनाश :- "कितने महीनों से तुम्हारे फोन का इंतजार कर रहा था, तुमने किया क्यों नहीं??"
नीरज :- "किया तो था!!!"
अविनाश :- "कब???"
नीरज :- "तुम्हारा मैसेज काफी लेट मिला था मुझे। दीदी भूल गई थी बताना। जब याद आया तो बताया, तो मैंने उसी दिन फोन किया था। पर हमेशा की तरह तुम फोन पर नहीं थे। आंटी से बात हुई थी। तुम जयपुर गए हुए थे।"
अविनाश :- "अच्छा!!! तो मां शायद बताना भूल गई होंगी, कि तुमने कॉल किया था।"
नीरज :- "कोई जरूरी काम था क्या???"
अविनाश :- "हां!!! तुमने भविष्य के लिए कुछ सोचा है नीरज???"
नीरज :- "क्या सोचूं???"
अविनाश :- "अब मैं सेटल हो गया हूं। अपना बिजनेस कर लिया है। इतना कमाने लगा हूं, कि परिवार की जरूरतें भी पूरी कर सकूं, और हम दोनों की भी।"
नीरज :- "मुबारक हो!!"
अविनाश :- "तुम मेरे साथ रहोगे नीरज?? (एक वज्र सा गिरा और नीरज ने खुद को लहूलुहान महसूस किया) आई लव यू सो मच!!"
नीरज :- "तुम यह बात आज कह रहे हो, अवि!!! (वह कराह उठा) कब से तुम्हारे मुंह से यह सुनने के लिए तरस रहा था मैं!! (वह सिसक पड़ा)
अविनाश :- "मैं तब तक तुमसे कुछ नहीं कहना चाहता था, जब तक मैं अपने पैरों के नीचे पुख्ता जमीन ना बना दूं। आज हालात इस काबिल हो चुके हैं। और मैंने अपने परिवार में भी अपनी पसंद के बारे में खुलकर सबको बता दिया है।"
नीरज :- "अब क्या फायदा!!! कल मेरी इंगेजमेंट है।"
अविनाश :- "ऐसा मजाक मत करो नीरज!! मैं बर्दाश्त नहीं कर पाऊंगा।"
नीरज :- "तुम्हें बर्दाश्त भी करना पड़ेगा, और इस हकीकत को कबूल भी करना पड़ेगा। मैंने तुम्हें इनवाइट करने के लिए फोन किया था। कल दिन में मेरी रिंग सेरेमनी है और 1 सप्ताह बाद शादी।"
अविनाश :- "तुम सच बोल रहे हो???"
नीरज :- "मुझे झूठ बोलकर क्या मिलेगा!! कल आ रहे हो ना???"
अविनाश :- "नहीं!!!"
नीरज :- "क्यों???"
अविनाश :- "मैं कैसे आ सकता हूं??'
नीरज :- "क्या दिक्कत है??"
अविनाश :- "तुम्हें अपने सामने किसी और का होते कैसे देख पाऊंगा???"
नीरज :- "जैसे मैं खुद को जिंदगी से दूर होते हुए देख लूंगा, जिस आग से मुझे गुजरना होगा, उसकी थोड़ी सी तपिश तुम भी तो बर्दाश्त करके देखो।" (नीरज ने सुबकते हुए फ़ोन रख दिया)
उस रोज सगाई की रस्म भी सम्पन्न हुई। इतना मायूस और उदास दूल्हा, मधुर ने आज तक नही देखा था। वो अपने दोस्त के दर्द को अच्छे से समझ सकता था। उसने नीरज को एक बार को समझाया भी की अगर वो यहाँ से भाग कर अविनाश के साथ जाना चाहे, तो वो नीरज की हर मदद करने को तैयार है। नीरज ने उसे ऐसा कुछ भी करने से साफ मना कर दिया।
नीरज :- "यार मैंने इतने सालों बस अविनाश की एक हाँ का इंतज़ार किआ। मैं अविनाश के साथ के आगे, हर किसी की बातें सुनने को भी तैयार था। लेकिन इस सब मे मेरे घरवालों के क्या कसूर। उन लोगों ने तो इस रिश्ते के लिए भी मुझसे बहुत बार पूछा, और मेरे हाँ करने के बाद ही ये शादी तय की। अब मेरे इस फैसले के साथ, कोई दूसरा परिवार और उसकी इज्जत भी जुड़ चुकी है। तो अब इन सभी लोगो की बेज्जती करने का मुझे कोई हक नहीं।"
उस रात नीरज की आँखों से केवल आँसू ही नही बहे थे। उन आँसुओ के साथ वो सारे सपने, वो सारे ख्वाब भी बह गए थे। जो वो इतने सालों बुनता रहा था। फिर कुछ दिनों बाद, मुरादाबाद के लिए रवानगी से एक दिन पहले अविनाश, नीरज से मिलने आया। बड़ी हुई दाड़ी, लाल आँखे और चेहरे पे छाई मायूसी के साथ उसने नीरज से बात की।
अविनाश :- "कैसे हो?"
नीरज :- "कैसा हो सकता हूँ, अवि??"
अविनाश :- "नीरज हमेशा खुश रहना!!!"
नीरज :- "तुमने क्यों इतना समय लगा दिया अवि!!!"
वहाँ कमरे में उन दोनों के अलावा कोई और तो मौजूद नहीं था, और ना ही वो दोनों एक दूसरे से कुछ बोल भी रहे थे। लेकिन उन दोनों की ख़ामोशी आपस मे ना जाने कितनी बातें कर रही थी। उन दोनों की जुबां तो कुछ नही कह रही थी, लेकिन उनकी आँखों से बहती आँसुओ की धारा, उन दोनों के दिल के हाल को बयां कर रही थी। दोनों ही एक दूसरे के लिए फैसलों के बोझ तले, अपने आने वाले जीवन को दांव पर लगाने को तैयार खड़े थे। लेकिन दोनों ने ही एक ऐसे सफर पर जाने की तैयारी कर ली थी, जिसके ना रास्तों से जान पहचान थी, और ना ही मंजिल का पता।
अब आगे ये कहानी क्या मोड़ लेकर आएगी। जानने के लिए थोड़ा इंतेज़ार कीजिये।