Tuesday, December 8, 2020

एक किस्सा पुराना - Final Part

If you didn't read the first part of this story than please read it first, than you will get easily be connected with this final part.


     पुराने किस्सों को भूलकर, नीरज ने अपनी आंखों से बहते आंसुओं को पोंछा, और आगरा जाने की तैयारी करने लगा। दरअसल आगरा से उसने अपना संबंध, अपनी शादी के बाद से खत्म ही कर लिया था। उसने अपना ट्रांसफर दिल्ली के विश्वविद्यालय में करवा लिया था। और अब वह एक दिल्ली के विश्वविद्यालय के कॉलेज में प्रोफेसर के तौर पर कार्य करता था। आगरा से मम्मी पापा भी अब उसी के साथ आकर रहने लगे थे। तो उनका आगरा से अब संबंध पूरी तरह से खत्म ही हो चला था। पर आज मधुर की ज़िद में उसे फिर से उस शहर में जाने को विवश कर दिया था, जिसके साथ दर्द जुड़ा हुआ था। दरअसल मधुर को अंदाजा ही नहीं था, कि इतने वर्ष बीत जाने के बावजूद भी उसके सीने में चिंगारी बनकर वह यादें आज भी धधक रही होंगी।


"हाय मधुर!!!" उसे देखकर मधुर चहक पड़ा।


मधुर :- (नीरज को गले लगाते हुए) "कब से इंतजार कर रहा था तेरा!!! मुझे यकीन था कि तू मुझे निराश नहीं करेगा!"


नीरज :- (मुस्कुरा कर) "तुझे कैसे इंकार करता??"


    मधुर उसका हाथ पकड़कर अंदर ले गया। अधिकतर रिश्तेदार आ चुके थे। घर में खूब गहमागहमी दिख रही थी।


मधुर :- "नीरज देखना!! तुझे बहुत अच्छा लगेगा। जितने भी फ्रेंड्स इस शहर में है, आज सब से मुलाकात हो जाएगी तेरी। आज फिर कॉलेज की यादें ताजा हो जाएगी।"


     वह जोश में बोलता जा रहा था, पर नीरज का दिल आशंका से सहम गया।


नीरज :- (धड़कते दिल से प्रश्न करते हुए) "कौन-कौन आ रहा है मधुर??


मधुर :- "एकता, श्वेता, प्रियंक, प्रदीप...!"


नीरज :- "और????"


मधुर :- (अनजान बनते हुए) "और किसे बुलाना था???"


     मधुर शरारत से हंस पड़ा, उत्तर में नीरज खामोश रह गया।


मधुर :- "लगता है कोई चिंगारी अभी भी दबी पड़ी है, तेरे सीने में!!"


नीरज :- "मैंने उसे जुनून की हद तक चाहा था मधुर, वो ज़ख्म आज भी नासूर बनकर टीस देता है मुझे!!"


मधुर :- "मुझे लगता था कि वक्त बड़े से बड़ा घाव भर देता है, तू अब अपनी ज़िंदगी मे व्यस्त हो चुका है, तो वह निशान बाकी नहीं रहे होंगे। (मधुर किसी आशंका में डूब गया) ये इश्क नहीं आसान बस इतना समझ लीजिए एक आग का दरिया है, और डूब कर जाना है।" (मधुर के चेहरे पर भी अफसोस के भाव उभर आए थे।)"


     दिनभर आपाधापी में गुजर गया। शाम को सभी सहपाठी आ चुके थे। उनसे मिलकर बहुत खुशनुमा एहसास हो रहा था। रह रह कर ठहाके लग रहे थे। कितनी ही यादें ताजा हो गई थी। लगता था कि वक्त ठहरा हुआ है। 20 वर्ष का लंबा अंतराल कभी गुजरा ही नहीं था। जयमाला हो रही थी, कि तभी गहरे नीले रंग के सूट और सुर्ख टाई में अविनाश आता नजर आया। अब उसने फ्रेंच कट दाढ़ी रख ली थी। आंखों पर चश्मा भी था। आज भी वह नीरज को बहुत हैंडसम लग रहा था। नीरज की आंखों में पल भर को एक चमक सी उभरी, फिर गम के बादलों ने उसे घेर लिया। वह झट से उसकी तरफ पीठ फेर कर खड़ा हो गया। मुश्किल से संभाला हुआ दिल फिर से मचलने लगा। उसे देखकर जी चाहा कि सब कुछ भूल जाए, और दौड़ कर उसके पास चला जाए।


      अविनाश की नजरें भी बेचैनी से नीरज को तलाश रही थी। आखिर हल्के पीले रंग के, पटोला प्रिंट सिल्क के कुर्ते में, उसकी ओर पीठ किए, नीरज को उसने तलाश ही लिया। नीरज के लिए ही तो वो आज बरसों बाद किसी फंक्शन में आया था। "अब कैसा दिखता होगा??" वह जानने की उत्सुकता थी, पर वह जल्दी में ना था। चुपचाप बैठ गया। कई सहपाठी उसे नजर आए पर किसी से बात करने का दिल नहीं किया। थोड़ी देर बाद नीरज पलटकर मधुर के साथ कहीं चल दिया। शरीर थोड़ा भर गया था, चेहरे पर बढ़ती वयस की परिपक्वता दिख रही थी। बालों में आई हल्की सी सफेदी, और वही सादगी भरा अंदाज, अविनाश को अपनी ओर खींच रहा था। नीरज जब तक उसे दिखाई देता रहा, वह अपनी आँखों मे गहरी चाह लिए, उसे देखता रहा।


मधुर :- (नीरज के कानों में फुसफुसाते हुए) "नीरज, अविनाश शायद तुझसे बात करना चाहता है।"


नीरज :- (व्याकुल होकर) "नहीं!!! मैं उससे नही मिलना चाहता।"


मधुर :- "क्यों??? क्या हर्ज़ है मिलने में??"


नीरज :- "तू समझ सकता है यार।"


मधुर :- "इतना बड़ा फ़ैसला लेने वाला, अब इतने सालों बाद इतना कमज़ोर क्यों पड़ रहा है??"


नीरज :- "मैं सचमुच कमज़ोर पड़ जाऊंगा उसके सामने मधुर, प्लीज उसे रोक दे।"


मधुर :- (जोर देते हुए) "कैसे रोक दूं यार??? कोई वाज़िब वज़ह भी तो हो!! देख, तेरे कसम देने पर, मैंने उसे आज तक तेरे बारे में कुछ नही बताया। तू एक बार उससे मिल तो ले। उससे बात करके तुझे भी अच्छा लगेगा और उसे भी।"


नीरज :- "उससे मुलाकात के डर से ही मैं आगरा नहीं आना चाहता था।"


मधुर :- "यार मुझे लगा कि इतने सालों के बाद तुम दोनों एक दूसरे को देख कर, मिल कर बहुत खुश होगे। इसीलिए मैंने उसे भी इन्वाइट किआ था, और देख, वो बस एक फ़ोन कॉल पर ही यहां आ भी गया।"


      कुछ देर और नीरज को समझाने के बाद, मधुर उसका हाँथ पकड़ कर उसे एक टेबल तक ले आया, जहां अविनाश पहले से ही बैठा हुआ था।


मधुर :- "थैंक्यू अविनाश, तुम मेरे एक फ़ोन करने पर ही यहाँ आ गए।"


अविनाश :- (नीरज को देखते हुए) "मुझे तो आना ही था मधुर।"


मधुर :- (नीरज को वहां पड़ी कुर्सी पर बैठा कर) "चलो तुम दोनों बातें करो, मैं थोड़ा काम निपटा कर आता हूँ।"


अविनाश :- (भारी मन से) "कैसे हो??"


नीरज :- (आँखे चुराते हुए) "अच्छा हूँ। तुम कैसे हो?"


अविनाश :- (मुस्कुरा कर) "जैसा छोड़ कर गए थे, वैसा ही हूँ। और बताओ, घर मे सब कैसे है। मैंने सुना, अंकल आंटी भी अब दिल्ली ही शिफ्ट हो गए हैं।"


नीरज :- "हाँ, मेरे जाने के बाद वो लोग काफी अकेले पड़ गए थे, तो फिर मैंने उन्हें भी वहीं बुला लिया!!! तुम बताओ, घर मे सब कैसे हैं???"


अविनाश :- "हाँ सब ठीक हैं। बड़े भैया को मथुरा में नौकरी मिल गयी थी, तो मम्मी पापा उनके साथ ही चले गए थे।"


नीरज :- "आंटी अभी भी नाराज़ हैं क्या??"


अविनाश :- "नहीं अब नहीं!!! अब सब पहले जैसा ही है।"


नीरज :- "सुनकर अच्छा लगा। और तुम्हारा बिज़नेस कैसा चल रहा??"


अविनाश :- "हाँ, सब अच्छा चल रहा है।"


नीरज :- (हिचकिचाते हुए) "और शादी????"


अविनाश :- "हाँ, वो भी अच्छी चल रही है। बहुत अच्छा और समझदार है मेरा लाइफ पार्टनर।"


नीरज :- (छनाक से टूटे दिल को संभालते हुए) "साथ ले कर क्यों नही आये, हम सब से भी मिल लेती वो।"


अविनाश :- "मैं सबकी नजर से बचा कर रखता हूँ उसे। तुम भी तो अकेले ही आये हो??"


नीरज :- (आँखों मे आयी नमी को छुपाते हुए) "हाँ वो, मम्मी पापा को अकेला नही छोड़ सकता था ना।"



     कुछ देर और यूँही दोनों इधर उधर की बातें करते रहे। और दोनों ही एक दूसरे का मन टटोलते रहे। लेकिन अब तक नीरज ने अपनी नज़रे झुकाए रखीं थीं, या वह इधर उधर देख कर ही अविनाश से बातें कर रहा था। उसने अब तक अविनाश की आँखों मे देख कर एक बार भी बात नही की थी। 


अविनाश :- "चलो नीरज अब मैं चलता हूँ। मैं तो बस यहां तुम्हें देखने चला आया था। लेकिन शायद मैं इस लायक भी नही, की तुम नज़रें उठा कर मुझसे बात कर सको।"


     अविनाश ये कह कर, बिना नीरज को कुछ और कहे, वहां से उठकर चला गया। उसके वहां से जाने के बाद, नीरज अविनाश जाते ही देखता रहा, जब तक वह उसकी नज़रों से ओझल ना हो गया। इस वक़्त तक नीरज की आँखों से आँसुओ की धारा बह चुकी थी। अविनाश से बात करते समय उसने एक बार को तो सोचा कि वह अपने बारे में अविनाश को सब सच बता दे, लेकिन अविनाश के लाइफ पार्टनर के बारे में जानने के बाद, उसने कुछ भी कहना उचित नही समझा था। कुछ देर बाद मधुर नीरज के पास आया।


मधुर :- "अविनाश कहाँ गया नीरज???'


नीरज :- (अपने आँसू पोंछते हुए) "वो चला गया।"


मधुर :- "तूने उसे सब बता दिया या नहीं???"


नीरज :- "मुझे जरूरी नही लगा उसे बताना, इसलिए नही बताया!!"


मधुर :- "लेकिन क्यों यार!! मैंने तुम दोनों को इसीलिए तो बुलाया था यार, की कम से कम अब तो तुम दोनों एक दूसरे को सब सच बताओगे, और शायद इसके बाद सब ठीक हो जाएगा!!"


नीरज :- "अब हमारे बीच कुछ ठीक नही हो सकता मधुर!!"


मधुर :- "लेकिन क्यों यार??? तूने मुझे कसम दी, इसलिए आज तक ना ही मैने उसे तेरे बारे में कुछ बताया, और ना ही तूने मुझे उसके बारे में कुछ बताने दिया। लेकिन यार आज तो सही मौका था, तुझे सब सच बता देना चाहिए था। मैंने ऐसा करने की कितनी बार कोशिशें की, लेकिन तूने एक नही सुनी। लेकिन मुझे यकीन था कि जब तुम लोग आज मिलोगे तो सब सही हो जाएगा। फिर तूने उसे क्यों नही कुछ बताया यार नीरज??"


नीरज :- "कैसे बताता यार, मैने पूछा उसके बारे में, वो खुश है अपनी ज़िंदगी मे, अपने लाइफ पार्टनर के साथ!!"


मधुर :- "कौनसा लाइफ पार्टनर???"


नीरज :- "मतलब???'


मधुर :- " उसने शादी नहीं कि है नीरज, और अंकल आंटी के जाने के बाद तो वो बिल्कुल अकेला सा पड़ गया है। तूने मुझे कभी बताने भी तो नही दिया उसके बारे में। इसीलिए तो मैं तुझे हर बार यहां आने के लिए कहता था। ताकि तू खुद देख ले आकर। और तूने भी ना जाने किस उलझन में, यहां वापस आने में 20 साल लगा दिए।"


नीरज :- "ये तू क्या कह रहा है मधुर?? अवि ने खुद मुझसे कहा है, की वो खुश है अपने लाइफ पार्टनर के साथ।"


मधुर :- "अब मुझे नहीं पता कि उसने ऐसा क्यों कहा तुझसे, लेकिन जहाँ तक मुझे पता है, उसने अपने बारे में तेरी शादी के वक़्त ही अपने घर मे बता दिया था। बहुत लड़ाई झगड़ा भी हुआ उसके घर मे इस बात को लेकर। और बदनामी के डर से, उसके मम्मी पापा और भाई, ये शहर भी छोड़ कर चले गए। और तब से वो अकेला ही रहता है।"


नीरज :- "तो उसने मुझसे जो कहा वो सच था या झूंठ!!"



     इसी उधेड़बुन को अपने दिल मे लिए, मधुर के कहने पर, नीरज निकल पड़ा अविनाश के घर की ओर। आखिर इस बात का सही जवाब तो उसे अविनाश से ही मिल सकता था, की वो सच बोल रहा था, या मधुर। और फिर नीरज को भी तो उसे अपना सच बताना था। इसी कश्मकश में नीरज जा पहुंचा अविनाश के घर। और बहुत ही असहजता से अविनाश के घर का दरवाज़ा भी खटखटा भी दिया।


अविनाश :- (दरवाजा पर नीरज को खड़ा देखकर) "मैंने इस दिन की कभी उम्मीद भी नही की थी।"


नीरज :- "अंदर आने को नही कहोगे??"


अविनाश :- "अपने ही घर मे आने के लिए इजाजत की जरूरत नही होती। ये तुम्हारा ही घर है।"


नीरज :- (घर मे अंदर आकर, यहाँ वहाँ देखते हुए) "तो कहाँ छुपा रखा है, अपने लाइफ पार्टनर को??"


अविनाश :- (मुस्कुरा कर) "वो तो हमेशा से मेरे दिल मे ही है। उसे कहीं छुपाने की जरूरत ही नहीं।"


नीरज :- (अविनाश की ओर मुड़ते हुए) "अविनाश क्या तुम मुझे एक बात सच सच बताओगे??"


अविनाश :- (नीरज से नज़रे चुराते हुए) "मुझे पता है नीरज तुम क्या जानने आये हो यहाँ। लेकिन जिस रास्ते जाना नही, उसका पता पूछ कर क्या करना। तुम्हारे लिए यही अच्छा होगा कि हम इस बारे में कभी बात ही ना करें।"


नीरज :- (मुस्कुरा कर) "चलो ठीक है, तुम ना बताना चाहो, लेकिन मैं कुछ बताना चाहता हूं। (थोड़ी देर की खामोशी के बाद) मैंने जो तुमसे फंक्शन में कहा, वो सब झूठ था। मैं अब शादी शुदा नहीं हूँ। मेरा तलाक शादी के 2 महीने बाद ही हो गया था। क्योंकि मैं अपनी बीवी को पति का कोई भी सुख नही दे पाया था। और फिर तलाक के कुछ समय बाद, मम्मी पापा ने दूसरी शादी के लिए कहा। तो मैं खुद को नही रोक पाया, और मैंने उन्हें मेरे बारे में सब सच बता दिया। तबसे मैं अकेले ही अपना जीवन जी रहा हूँ।"


अविनाश :- (आँखों मे आँसू लिए) "तो तुम्हे इतने साल क्यों लग गए मेरे घर के दरवाजे तक आने में?? तुम्हे खुद पर भरोसा नही था, या मुझ पर?"


नीरज :- "किस मुँह से आता अविनाश। मेरे एक गलत फैसले की वजह से, मैं एक ज़िन्दगी तो खराब कर ही चुका था। मैं तुम्हारे लिए भी बेबसी का सबब नही बनना चाहता था।"


अविनाश :- "मैंने तुमसे प्यार किआ था नीरज, और आज भी उतना ही करता हूँ। तुम मेरे लिए कभी भी अफसोस का कारण नही बन सकते।"


नीरज :- "मैं तुमसे एक सवाल पूंछना चाहता हूँ जो कभी तुमने मुझसे पूछा था। क्या तुम मेरे साथ रहोगे? मैं तुमसे बहुत प्यार करता हूँ अविनाश।"


       अविनाश ने आगे बढ़ कर नीरज को अपने गले से लगा लिया। और दोनों ही एक दूसरे को गले लगा कर, जी भर कर रोये, और दोनों के बीच में आयी 20 साल की दूरी को, उन आँसुओं ने दूर किया।


      खैर, इस किस्से में तो 20 साल के बाद भी, किसी का प्यार मुक्कमल हो गया। लेकिन ये किस्से कहानियां, जरूरी नही की असल जिंदगी में भी अपना असर दिखा पाए। तो इस किस्से से आप सभी को एक सीख लेने की बेहद जरूरत है। कभी भी जल्द बाजी में, या फिर किसी के भी दबाव में, ऐसा कोई फैसला ना लें, जिससे आप के साथ साथ किसी और का भी जीवन प्रभावित हो। हमेशा वही करने की कोशिश करें, जिसमे आपका दिल और दिमाग साथ हो। हो सकता है, ऐसे फैसले, आपके अपनो को कुछ समय के लिए नाराज भी कर जाए, लेकिन कुछ समय की नाराजगी, जीवन भर की यातनाओं से कई गुना आसान होगी। और शायद उससे आपको अपने जीवन को प्यार से भरने में, 20 सालो का समय भी ना लगे।



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Lots of Love

   Yuvraj ❤️



















Wednesday, December 2, 2020

एक किस्सा पुराना -Part I

Hello friends,

                       I am again here to present my new story, hope you like it as well. 


    ये कहानी है आज से 30 साल पहले की, जब इस समाज मे समलैंगिकता को बहुत ही ज्यादा बुरी नज़र से देखा जाता था। खैर, उस नज़रिए में तो आज भी कुछ ज्यादा बदलाव नही आया है। लेकिन तब तो बात कुछ और ही थी, तब तो समलैंगिकता एक कानूनी अपराध भी हुआ करता था। और उस पर ये समाज और इसकी बाते, किसी भी समलैंगिक इंसान को दोहरी ज़िन्दगी जीने पर विवश कर ही देती थीं। आपको भी अब मैं एक पुराना किस्सा सुनाता हूँ, जो 1990 के आस पास का है, जब इस देश मे अपने मन की बात किसी को बताने से ज्यादा आसान, नए नए आये कंप्यूटर को चलाना सीखना था।



 नीरज :- (फ़ोन पर अपने दोस्त से बात करते हुए) "कोशिश करता हूं आने की!!"


मधुर :- "कोशिश नहीं नीरज!!! तुझे आना है बस, कैसे भी!"


नीरज :- "हां देखता हूं!!"


मधुर :- "अरे फिर देखता हूं!!! तुझे आना है, मतलब आना है। कोई बहाना नहीं चलेगा।"


नीरज :- "हां!! ओके बाय!!"


         उसने फोन रख दिया। दिलो-दिमाग में गहरी उथल-पुथल मच चुकी थी। अब आगरा जाना पड़ेगा। वह इस शहर में जाने से जितना बचना चाह रहा था, अब जाना उतना ही जरूरी हो गया था। उसका कोई बहाना अब नहीं चलने वाला था। मधुर कुछ सुनने को तैयार ही नहीं था। मधुर की बेटी की शादी थी, ऐसे में उसका प्रिय मित्र ना आए, यह कैसे हो सकता था भला???  बरसों बाद तो मुलाकात का एक मौका मिला था। असमंजस की स्थिति में नीरज अपनी उंगली में पड़ी अंगूठी को इधर-उधर घुमाने लगा।


      नाजुक सी सोने की अंगूठी, जिसमें बीच में नीले रंग का एक बड़ा सा झिलमिलाता हुआ जरकिन का नग लगा हुआ था। यह अंगूठी जो कभी अविनाश ने दी थी, उसे तोहफे में। जिसे वह शादी के इतने साल बाद भी नहीं उतार पाया था। शादी के वक्त अगर किसी ने उससे पूछा भी था, कि वह अपनी सगाई की अंगूठी की जगह, यह अंगूठी क्यों पहनता है??  तो उसने सिर्फ यही जवाब सबको दिया था, कि सगाई वाली अंगूठी डायमंड की है, और वह अक्सर अंगूठी उतार कर इधर-उधर रख देता है, ऐसे में अगर खो गई तो नुकसान हो जाएगा। जबकि यह हल्की है, और इसे बरसों से पहनने की आदत है। लेकिन वह अंगूठी ना उतारने के पीछे की असल वज़ह तो सिर्फ नीरज का दिल ही जानता था।


     उसके जेहन में वह आकर्षक चेहरा उभरने लगा, जिसकी याद आज भी नासूर बनकर उसके दिल में पल रही थी। लंबा कद, गोरा रंग, सौम्य - शालीन व्यक्तित्व । अविनाश उस बैच का सबसे हैंडसम लड़का था। बहुत कम बोलता था, अक्सर डायरी में न जाने क्या लिखता रहता था। कॉलेज में जब नीरज ने दाखिला लिया, तो जिस शख्स ने सबसे पहली बार उसका ध्यान आकर्षित किया था, वह अविनाश था। कई बार नीरज की उस पर नजर पड़ी, तो उसने अविनाश को अपनी ओर देखते पाया। निगाह मिलते ही, झेंप कर वह दूसरी ओर देखने लगता था।


     नीरज दुबला पतला, आकर्षक युवक था। गेहूंआ रंग, सलीके से बने बाल, स्मार्ट, भव्य व्यक्तित्व, उसका खुशमिजाज व्यवहार, हर बात पर खिलखिलाना, किसी को भी अपनी ओर आकर्षित कर लेता था। कॉलेज में आते ही उसकी, काव्या से दोस्ती हो गई थी। देखने में काव्या गोरी रंगत की सामान्य सी दिखने वाली युवती थी।


       उस दिन भी दोनों खाली समय में कुछ और मित्रों के साथ महाविद्यालय के परिसर में साथ बैठे गप्पे मार रहे थे। इधर उधर की बातें करते हुए, चर्चा का विषय अपने सहपाठियों पर गया। कौन किस में रुचि लेता लग रहा है, कौन लल्लू लगता है, कौन बहुत डेशिंग है। यही सब बातें हो रही थी। तभी काव्या ने शर्माते हुए बताया, कि उसे भी कोई पसंद आ गया है। बहुत पूछने पर बोली कि उसे अविनाश बहुत पसंद है। वही लड़का जो आज ब्लू जींस और ब्लैक शर्ट में कॉलेज आया था।


    यह सुनकर नीरज का मन आहत हो उठा। जैसे उसके अधिकार क्षेत्र में कोई और अनाधिकृत रूप से प्रवेश कर रहा हो। तभी काव्या ने उसके समक्ष प्रस्ताव रखा, कि वह अविनाश के साथ उसकी दोस्ती करवा दे। नीरज असमंजस में पड़ गया, काव्या से कैसे कहता, कि अविनाश तो उसके हृदय में धड़कन बनकर धड़क रहा है। पल भर सोचता रहा, फिर उसने निश्चय किया कि वह काव्या से मित्रता कर लेने का प्रस्ताव लेकर अविनाश के पास अवश्य जाएगा। स्वयं के लिए तो कुछ कहने का प्रश्न ही नहीं उठता था। उन दिनों में लड़कों का लड़कों के लिए ह्रदय धड़कने की बात ही, आसमान टूट गिरने की बात के बराबर हुआ करती थी। और उस पर नीरज तो अन्य युवकों से भी बढ़कर संकोची था।


     तभी काव्या ने नीरज को चुटकी काटी, तो वह चौंक पड़ा। सामने से अविनाश निकल रहा था। नीली जींस और उस पर काली शर्ट उसके उजले रंग पर बहुत फ़ब रही थी। तभी ना जाने अविनाश किन ख्यालों में गुम, वहाँ रुक गया। जेब से उसने नन्ही सी डायरी और पेन निकाला और कुछ लिखने लगा। तभी "एक्सक्यूज मी" कहता हुआ नीरज तेज कदमों से उसकी ओर बड़ा। अविनाश ने निगाह उठाई तो नीरज को देख कर उसके चेहरे पर पल भर को एक चमक सी दौड़ गई। नीरज ने उससे कहा कि उसकी एक मित्र उससे मित्रता करना चाहती है। जब अविनाश ने उस मित्र का नाम जानना चाहा, तो नीरज ने काव्या की ओर इशारा कर दिया। अविनाश ने उधर देखा तो उसका चेहरा एकदम भाविन था। नीरज समझ नहीं पाया कि वह क्या सोच रहा है। जब उसने पुनः प्रश्न किया, तो अविनाश ने इस प्रस्ताव पर सहमति की मुहर लगा दी। नीरज को महसूस हुआ, जैसे उसके हृदय में कहीं कुछ चुभ सा गया है। उसे ना जाने क्यों आशा थी कि शायद अविनाश इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर देगा। परंतु उसकी सहमति उस उम्मीद पर तुषारपात कर गई थी। फिर कुछ संभल कर उसने अपना परिचय भी दिया, कि उसका नाम नीरज है। तो अविनाश बड़े ही खुशगवार ढंग से मुस्कुराया और बोला, वह उसे जानता है। नीरज को उसका जवाब बड़ा अच्छा लगा। वह शरारत से मुस्कुराया।


नीरज :- 'जानकर अच्छा लगा कि आप कम से कम मुझे जानते तो हैं!!"


अविनाश :- "हां कुछ लोग बहुत जल्दी सबका ध्यान अपनी ओर खींच पाने में सक्षम होते हैं!!"


नीरज :- "ओह!! अपनी यह क्वालिटी तो मुझे पता ही नहीं थी।"


अविनाश :- (मुस्कुराकर) "ओके चलता हूं। सी यू टुमारो।"


नीरज :- "अरे काव्या से हेलो तो कह दीजिए।"


       नीरज ने कहा तो अविनाश ने एक बार अपनी कलाई पर बंधी घड़ी पर दृष्टि डाली। फिर उसके साथ काव्या की तरफ बढ़ गया। थोड़ी देर वो लोग आपस में बातें करते रहे। फिर अविनाश चला गया।


      "तू सच में बहुत अच्छा दोस्त है" अविनाश के जाते ही काव्या ने नीरज को गले लगा लिया।  इसके बाद चल निकला बातों का सिलसिला। मौका मिलते ही वे तीनों बातें करने बैठ जाते। अविनाश को शेरो शायरी के साथ, छोटे-छोटे गिफ्ट्स, कार्ड्स देने का बहुत शौक था। अक्सर वह काव्या को कार्ड और गिफ्ट देता था। पर नीरज को हैरानी होती थी, जब साथ में उसके लिए भी कार्ड और गिफ्ट होता था। बातों का मौका बहुत कम मिलता था, इसलिए दिल की बात कहने के लिए खत का सहारा लिया जाता था। अब तक सभी सहपाठियों के बीच काव्या और अविनाश की ही चर्चा थी। जब काव्या के साथ अविनाश, नीरज को भी खत लिखा करता था, तो नीरज सोचता था कि, उसकी दोस्त पर क्या गुजरती होगी यह सब देख कर!!  बेशक अच्छा तो नहीं लगता होगा। पर काव्या ने ऐसा कुछ कभी जाहिर नहीं होने दिया था।


    एक दिन पूरे सप्ताह भर की अनुपस्थिति के बाद नीरज कॉलेज गया। तो साइकिल स्टैंड पर अविनाश ने उसे रोक लिया। और ना आने का कारण पूछने लगा। नीरज ने बताया कि स्वास्थ्य ठीक ना होने के कारण वह नहीं आ पाया था। कुछ देर इधर-उधर की बात करके उसने बताया कि, 1 दिन पहले बात करते हुए काव्या ने उसे कहा है, कि वह अविनाश से प्रेम करने लगी है। नीरज यह सुनकर चौक पड़ा। क्योंकि काव्या ने उससे तो कुछ नहीं कहा था इस विषय में। अविनाश काफी गंभीर था, और बताने लगा कि उसने तो इस विषय में अब तक कुछ सोचा नहीं है। वह नीरज से सुझाव मांगने लगा, कि इस स्थिति में उसे क्या करना चाहिए। नीरज ने उसे आश्वस्त किया, कि वह काव्या से बात करके पता लगाएगा कि उसके मन में क्या है। अविनाश तो उसके जवाब से संतुष्ट होकर चला गया, पर नीरज के दिलों दिमाग में हलचल मच गई। यह सब सुनकर उसे अच्छा नहीं लगा था। उसने अपना स्कूटर स्टैंड पर लगाया, और कक्षा में जाकर काव्या के आने का इंतजार करने लगा।"      


     काव्या आई तो नीरज को देखकर प्रसन्न हो गई। उसके ना आने का कारण पूछा, वजह बता कर थोड़ी देर औपचारिक बातें होती रहीं। फिर नीरज ने उससे आखिर पूछ ही लिया, कि वह अविनाश के साथ किस हद तक गंभीर है। काव्या के यह कहने पर कि, अच्छा मित्र है, बस इससे ज्यादा वह कुछ नहीं सोच सकती, क्योंकि उसके परिवार वाले काफी पुरानी सोच रखते हैं। इस पर नीरज ने पूछा कि यदि ऐसा है, तो उसने अपने प्रेम का इजहार क्यों किया??  नीरज के मुंह से यह सुनते ही काव्या भड़क गई।


काव्या :- (झल्लाते हुए) "अरे यार बात करते हुए थोड़ा सेंटी हो गई थी, तो बोल दिया आई लव यू। पर उसने भी तुझे आते ही बता दिया??"


नीरज :- "वह परेशान है!!"


काव्या :- "यह लो!!! इसमें परेशानी की क्या बात है?? मैंने कौन सा उससे शादी करने को बोला है??"


नीरज :- "पर काव्या ऐसी बातें यूं ही नहीं बोल दिया करते!!"


काव्या :- "एक बात बता नीरज, तुझे प्रॉब्लम क्या है??? क्या मैं हर बात तेरी परमिशन लेकर बोला करूं???"


नीरज :- "तू तो बेकार ही नाराज हो रही है!!"


काव्या :- "बेकार क्यों?? वह जब बात करेगा, तो तेरे साथ करेगा। मुझे कार्ड या गिफ्ट देगा, तो तुझे भी देगा। मुझे लेटर लिखेगा, तो तुझे भी लिखेगा। कभी अकेले में मैं कुछ कहूं, तो वह झट से तुझे बता देगा, और तू पूछताछ करने चला आएगा। चल क्या रहा है तुम लोगों के बीच में??"


नीरज :- "काव्या!!!" (नीरज काव्या के उखड़े स्वर को सुनकर हैरान रह गया) 


काव्या :- "माना कि तूने हमारी फ्रेंडशिप करवाई है, पर इसका मतलब यह तो नहीं कि अब हमेशा तेरे साए में ही जीना होगा मुझे!!"


नीरज :- (हैरानी से काव्या को देखते हुए) "सॉरी मुझे नहीं पता था कि तू इतना बुरा मान जाएगी।"


काव्या :- "बुरा मानने वाली बात ही है नीरज।"


नीरज :- "ओके चलता हूं!! देर हो रही है।" (कहकर नीरज वहां से उठ खड़ा हुआ)


        नीरज ने इस तरह के प्रतिउत्तर की उम्मीद बिल्कुल भी काव्या से नहीं की थी। इसके बाद वह काव्या से दूरी बरतने लगा। काव्या भी उससे कटी कटी सी रहने लगी। दोनों ही अब दोस्तों के अलग-अलग समूहों में रहने लगे। बातचीत भी बिल्कुल बंद हो गई थी। कभी-कभी सामने पड़ने पर औपचारिकतावश मुस्कुरा देते थे। अविनाश ने उन दोनों को अलग-अलग देखा, तो बात करने की कोशिश की। पर काव्या उसकी भी उपेक्षा करके वहां से चली गई। कई दिन इसी तरह से गुजरे, फिर एक दिन रास्ते में अविनाश ने नीरज को रोक लिया और कहीं चल कर बात करने पर दबाव डालने लगा। बहुत मना करने पर भी जब वह नहीं माना, तो नीरज उसके साथ एक रेस्टोरेंट में चला गया।


     वहां पहुंचकर अविनाश ने पहला प्रश्न यही किया, कि उन दोनों दोस्तों के मध्य क्या हुआ है? वे दोनों एक साथ क्यों नहीं दिखाई देते? पहले तो नीरज ने टालने की कोशिश की, फिर अविनाश के बहुत जोर देने पर, बता दिया, कि उस दिन उसके रिश्ते की गंभीरता के विषय में पूछ लेने पर काव्या बहुत बुरा मान गई थी। साथ ही उसने अविनाश को आगाह भी कर दिया कि, काव्या उसे लेकर जरा भी गंभीर नहीं है। जिस दिन उनका आठ छूटेगा, वह पलट कर नहीं देखेगी। इस पर अविनाश ने बताया कि उसे भी यही शक था, इसलिए उसने नीरज की मदद मांगी थी। उसने यह भी बताया कि, वह काव्या की ओर जरा भी आकर्षित नहीं था, पर उसके मित्रता प्रस्ताव को महज इसलिए स्वीकार कर लिया था, क्योंकि उसके पास यह प्रस्ताव लेकर आने वाला नीरज था। और वह उसके लिए कुछ भी कर सकता था। यह सुनकर नीरज आश्चर्य में पड़ गया। उसकी खुशी का ठिकाना ना रहा। उसने एक नए दृष्टिकोण से अविनाश की ओर देखा, तो उसकी आंखें बहुत कुछ कहती नजर आईं।


    फिर अविनाश ने यह राज भी खोला की काव्या ने उससे अपने दिए गए पत्र व कार्ड्स वापस मांग लिए थे। अविनाश को यह बहुत नागवार गुजरा था, कि काव्या ने उस पर भरोसा नहीं किया था। नीरज को भी यह जानकर बहुत बुरा लगा था। अविनाश जैसा इंसान क्या इन चीजों का कोई गलत इस्तेमाल कर सकता था??? लेकिन उस दिन की मुलाकात ने, दोनों के ही बीच मे सबकुछ बदल सा दिया था। जहाँ नीरज अविनाश के लिए अपनी भावनाओं से पहले ही अवगत था, अब उसे अविनाश की नज़रों और उसकी बातों में खुद के लिए एक अलग ही जगह साफ साफ दिखाई देने लगी थी। और धीरे धीरे समय के साथ दोनों ने बिना एक दूसरे के सामने अपने मन की बातों का इज़हार कर, एक दूसरे को अपना भी लिया था। 


      अब नीरज मधुर और उसके कुछ और दोस्तों के साथ रहने लगा था। इस बात का अविनाश और नीरज दोनों ने खास ख्याल रखा था, कि कॉलेज में वे कोई भी बात आपस में ना करें। पर अक्सर बातें और मुलाकातें होने लगी। कभी रेस्टोरेंट में, कभी उसके घर, तो कभी अविनाश के घर। नीरज के घर भी सभी लोग अविनाश को अच्छे से जानते थे, और अविनाश के साथ नीरज की दोस्ती को लेकर भी उन्हें कोई समस्या नहीं थी। बल्कि सभी अविनाश को बहुत पसंद भी करते थे। उधर अविनाश के यहां भी यही माहौल था। अविनाश बहुत अच्छा कुक भी था। कभी-कभी साउथ इंडियन डिश बनाता, तो नीरज को घर जरूर बुलाता था। और नीरज हंसकर कहता था।


नीरज :- "जानते हो अवि तुम मुझे क्यों पसंद हो, क्योंकि तुम कुकिंग बहुत अच्छी करते हो।"


अविनाश :- "और मुझे तुमने आज तक एक कप चाय भी बना कर नहीं पिलाई है। नीरज कुछ सीख लो वरना, शादी के बाद तुम्हारी पत्नी तुमसे बहुत नाराज रहा करेगी!!!"


नीरज :- "क्या करना है?? मैं गृह कार्य में दक्ष इंसान से शादी करूंगा। मेरी शर्त यही होगी कि, लड़का सुंदर सुशील और घर के कामकाज करना जानता हो, कमाने का काम तो मैं कर ही लूंगा।"


अविनाश :- "लड़का????? ऐसा कह पाओगे??? और  किस बिचारे की किस्मत फूटेगी तुमसे शादी करके।"


नीरज :- "एक बेचारे को तो आजकल मैं परख भी रहा हूं।"


अविनाश :- "अच्छा!!! तुम्हें पता भी नहीं लगेगा कि, मैं परिंदा बनकर कब फुर्र हो जाऊंगा।"


नीरज :- "सबसे पहले परिंदे के पर ही कतर दूंगा, उड़ने की सोच भी नहीं पाएगा।"


      नोकझोंक यूं ही चलती रही और वक़्त तेजी से गुजरता गया। ऐसे ही स्नातक का अंतिम वर्ष भी निकल गया, और मुलाकातें बहुत कम हो गई। अविनाश ने कॉलेज छोड़ दिया और जीविका कमाने की फिक्र में लग गया। पिता बैंक मैनेजर के पद से सेवानिवृत्त हो चुके थे, और बड़ा भाई कुछ करता नहीं था। तो घर को चलाने की सारी जिम्मेदारी अविनाश के ही कंधे पर थी। उधर नीरज ने भी एम ए के साथ टीचिंग भी शुरू कर दी थी। और उन दिनों कंप्यूटर सीखने पर जोर दिया जाने लगा था, तो उसने भी कंप्यूटर कोर्स जॉइन कर लिया था। समय की बहुत कमी हो गई थी। अब संपर्क एकदम से टूट ही गया था। दुनिया भर की बातें हुई थी, दोनों के मध्य, सिर्फ एक बात को छोड़कर। चाहत का इकरार किसी ने भी नहीं किया था। नीरज ने भी बिना इकरार किए कई कोशिशें तो की थी, लेकिन अविनाश ने अपनी उलझनो के चलते, नीरज की उन कोशिशों पर ज्यादा ध्यान भी नहीं दिया था।


      समय की कमी की वजह से नीरज ने अविनाश के घर भी जाना बंद कर दिया था। और इसी बीच वे लोग किराए का मकान छोड़कर अपने नए घर में शिफ्ट कर गए थे। जो नीरज के घर से काफी दूर था। अविनाश ने कभी उसे जोर देकर आने को भी नहीं कहा था। "क्या सचमुच अविनाश नाम का परिंदा उड़ चुका था??? जब वह यह सोचता था, तो उसकी आंखें भीग जाया करती थी। आखिर क्या है अवि के मन में???  क्यों मुझसे दूर होता जा रहा है??? क्या उसकी जिंदगी में कोई और आ चुका है??? या वो मेरे लिए वैसा महसूस ही नही करता, जैसा मैं उसके लिए करता हूँ??" ढेरों सवाल थे नीरज के मन मे, जिनका जवाब या तो अविनाश को पता था, या भगवान को।


      जब तन्हा बैठता बेचैनियां हावी होने लगती थी। उस वक़्त अविनाश के घर फोन था, पर नीरज के यहां तब तक नहीं लगा था। एक दो बार उसने पीसीओ जाकर फोन किया भी, तो कभी आंटी और कभी भैया ने फोन उठाया। औपचारिक बातें करके उसने फोन रख दिया। बार-बार फोन करने में झिझक लगती थी, जबकि यह भी निश्चित ना हो कि फोन उठाने वाला शख्स कौन होगा। अक्सर अविनाश के पुराने खतों का ढेर उठा कर बैठ जाता, उन्हें पड़ता और पुरानी बातें याद करके सिसकता रहता। उसके ढेरों कार्ड्स, गिफ्ट्स, पर्ची पर लिखकर दी हुई शेरो शायरी। सब बड़ा संभाल कर रखी हुई थी। उसे याद आता, कैसे एक बार अविनाश के देरी से कॉलेज आने पर, उसने नाराज होकर मुंह फेर लिया था। अविनाश ने कई बार उसे देख कर मुस्कुराया, तो उसने शिकायती अंदाज से घूर दिया। किसी के सामने वे बात करते नहीं थे। इसलिए हर बात चुपके से खतों के माध्यम से ही होती थी। नीरज के अभिन्न मित्र मधुर के सिवा किसी को उनके मध्य पनपे इस अनुरागात्मक संबंध की जानकारी नहीं थी। और उस समय के हिसाब से, मधुर काफी खुले विचारों का व्यक्ति था, तो उसे इस रिश्ते से कोई परहेज भी नही था। और वो उन दोनों की काफी मदद भी किआ करता था। उस दिन अविनाश ने मधुर के हाथों एक छोटा सा कार्ड भिजवाया। जिसमें सिर्फ दो पंक्तियां लिखी हुई थी।


 बार-बार पढ़िए हमें, न फेंकिए इस कदर,

हम आपके दोस्त हैं, कोई शाम का अखबार नहीं।


    यह पढ़ते ही उसके होठों पर एक प्यारी सी मुस्कान छा गई। उसने निगाह उठाकर उसे देखा तो मानो वह निहाल हो गया। कितनी ही बार अविनाश उसकी उसके स्कूटर की डिक्की में सुर्ख गुलाब अटका जाता, जिसे नीरज बड़े यत्न से किताबों में सहज लेता। आहिस्ता आहिस्ता अविनाश कब उसके दिल की गहराइयों में बस चुका था, उसे खबर भी ना हुई थी। रिसता हुआ जख्म नासूर का रूप लेने लगा था, और जख्म देने वाले को खबर भी नहीं थी। नीरज ने खुद को बहुत व्यस्त कर लिया था, ताकि उसे वो पुराने किस्से, वो पुरानी यादें, परेशान ना करें। पर रात की तन्हाई में वे उसे जकड़ ही लेते थे। पूरी रात आंखों में गुजर जाती, तकिए में जज़्ब हुए आंसू, कितनी ही बेचैन रातों के खामोश गवाह बन जाते थे।


    एक दिन संडे को उसकी छुट्टी थी, और दिन काटना मुश्किल लग रहा था। बेचैनी के आलम में वह बेमकसद घर से निकल पड़ा। निगाहे हर जगह उस एक चेहरे को ही ढूंढ रही थी, कि काश वह कहीं से आ जाए।  "नीरज"  एक जानी पहचानी हुई आवाज आई, पलट कर देखा तो बाइक पर अविनाश बैठा हुआ मुस्कुरा रहा था। साथ में उसका कोई दोस्त भी था।


नीरज :- (थरथराती आवाज़ में)  "वॉट अ प्लेज़ेंट सरप्राइज अवि!! आई मिस यू अलॉट!!"


अविनाश :- "मी टू!!! मीट माय फ्रेंड, वासु!"


नीरज :- (वासु की और हाँथ बढ़ाते हुए) "हेलो!!"


वासु :- (मुस्कुरा कर) "अवि ने बहुत कुछ बताया है आपके बारे में, मिलने की बड़ी इच्छा थी। चलिए आज मुलाकात भी हो गई।"


     वासु ने ऐसा बोला तो सुनकर नीरज को बहुत अच्छा लगा।


अविनाश :- "कहां जा रहे हो??"


नीरज :- "यूं ही बस!!"


अविनाश : "टाइम है???"


नीरज :- "हाँ, बोलो ना!!!"


अविनाश :- "पास ही वासु का घर है, वहाँ चलें???"


नीरज :- (एक पल सोचकर) "हाँ!! चलते हैं।"


     कितना कुछ था कहने को, पता नहीं कुछ कहने का मौका भी मिलेगा या नहीं। पर वह मुश्किल से हाथ आए इस मौके को छोड़ना नहीं चाहता था। वासु के परिवार में सभी बहुत प्यार से उससे मिले। मालूम पड़ता था, कि अविनाश के उनसे घनिष्ठ संबंध हैं। नीरज सबसे हंस बोल तो रहा था, पर उसकी बेचैनी चेहरे से साफ झलक रही थी। फिर एक-एक करके वे सभी उन दोनों को वहां अकेला छोड़ कर चले गए।


अविनाश :- "क्या सोच रहे हो???"


नीरज :- (भरे गले से) "अवि क्या तुम्हें कभी मेरा ख्याल नहीं आता?? बिल्कुल भुला दिया है तुमने मुझे???"


अविनाश :- "क्या तुम्हें लगता है कि ऐसा हो सकता है??"


नीरज :- "तो क्या वजह है इस बेरुखी की??"


अविनाश :- "बेरुखी नहीं है नीरज सिर्फ मजबूरी है। जानता हूं कि तुम्हारे जहन में इस वक्त ढेरों सवाल है, पर फिलहाल में जवाब देने की स्थिति में नहीं हूं।"


नीरज :- "जवाब के लिए कब तक इंतजार करूं अवि??"


अविनाश :- (नज़रे चुराते हुए) "पता नहीं!!!!! अरे तुम्हारा तो जन्मदिन आ रहा है 2 दिन बाद, बताओ कहां ट्रीट दे रहे हो??"


नीरज :- "बोलो कहां चाहिए??"


अविनाश :- "चलो उस दिन हम ढेर सारा वक्त साथ गुजारेंगे। ओके, पहले एक मूवी देखेंगे, फिर लंच करेंगे।"


नीरज :- (चेहरे पर छाई खुशी के साथ) "ओके!!" 


     जब नीरज अविनाश से विदा लेकर घर आया, तो 2 दिन का इंतजार करना भारी पड़ने लगा। कब वह घड़ी आएगी जब वह प्रिय व्यक्ति उसके पास होगा, ढेरों बातें होंगी, गिले-शिकवे, बहुत कुछ था कहने सुनने को। सदियों के समान एक-एक पल गुजरा। जन्मदिन पर बहुत उत्साहित था वह। बहुत समय बाद उसने खुद को संवार कर आईने में देखा, अपने ही प्रतिरूप पर मुक्त हो उठा। उसने नई नीले रंग की शर्ट और वाइट पेंट पहना था। बाहर निकलने को हुआ, तो फिर से आईने में देखा। "नहीं!!! ऐसे नहीं जाऊंगा"। थोड़ा सोच विचार कर, ब्लू जीन्स और लाइट येलो रंग की टीशर्ट पहन ली।


मम्मी :- "अरे अच्छा तो लग रहा था नए कपड़ों में, फिर बदल क्यों लिए??"


नीरज :- (घर से बाहर आते हुए) "यूं ही बस, मन नही किआ उन्हें पहनने का।"


     हालांकि उसे खुद को भी वजह समझ नहीं आ रही थी। पिक्चर हॉल पहुंचा, तो अविनाश उसके इंतजार में बाइक पर बैठा था। उसे सर से पांव तक निहारा, फिर कुछ अलग अंदाज में मुस्कुरा दिया। 


अविनाश :- "हैप्पी बर्थडे!!"


नीरज :- "थैंक्स!! ऐसे क्यों मुस्कुरा रहे हो??"


अविनाश :- "ऐसे मतलब??"


नीरज :- "तुम्हारी स्माइल कुछ कह रही है, बहुत राज भरी लग रही है??"


अविनाश :- "हम्ममम्म!!!  लीव इट!!"


नीरज :- "क्यों बताओ ना क्या हुआ???"


अविनाश :- "पता है, आने से पहले मैं शेव कर रहा था। तो ख्याल आया कि तुम आज क्या पहन कर आओगे। फिर ख्वाहिश हुई कि तुम ब्लू जींस और येलो टीशर्ट में आओ, इसमें तुम मुझे बहुत अच्छे लगते हो।


नीरज :- (आश्चर्य से) "तुम्हें हैरानी होगी अवि,  कि मैंने आने से पहले दूसरे कपड़े पहने थे। फिर न जाने क्यों उन्हें पहन कर आने का दिल नहीं हुआ। तो मैंने यह कपड़े डाल लिए।"


अविनाश :- "देखो इसे कहते हैं टेलीपैथी!!"


नीरज :- "हाँ सचमुच, उस दिन भी मैं तुमसे मिलने को बेकरार था, यूँही घर से निकल पड़ा था, और तुम मुझे रास्ते मे मिल भी गए।"


अविनाश :- "हाँ नीरज, हमारा रिश्ता बेमिसाल है।"


      दोनों सिनेमाघर में जा बैठे, और पिकचर भी शुरू हो गई। दोनों के बीच की खामोशी को नीरज ने ही तोड़ा।


नीरज :- "तुमने कहा बेमिसाल रिश्ता??? इस रिश्ते में इतनी तकलीफ़ मेरे ही हिस्से क्यों है अवि??? इस कदर बेचैनी मेरी जान ले लेगी!!"


अविनाश :- "ख़ामोश!!! ऐसी बातें मत करो नीरज, ये दिन भी गुज़र जाएंगे।"


नीरज :- (साँस छोड़ते हुए) "हाँ!! वक़्त कब रोके रुका है, निकल ही जायेगा।"


अविनाश :- "आज इतनी ना उम्मीदी भरी बातें मत करो। जो होता है अच्छे के लिए होता है। अपना बर्थडे गिफ्ट नहीं देखोगे।"


      कहते हुए उसने एक नाजुक सी अंगूठी निकाली, जिसके बीच में लगा बड़ा सा जरकिन का नग चमक रहा था। आहिस्ता से नीरज की अनामिका में पहना दी।


नीरज :- "सो ब्यूटीफुल!!"


अविनाश :- "खासतौर पर तुम्हारे लिए ऑर्डर देकर बनवाई थी।"


नीरज :- "आई लव इट!!"


अविनाश :- (शरारती अंदाज में) "और मुझसे???"


नीरज :- (कृत्रिम गुस्से से) "तुम इस लायक नहीं!!"


अविनाश :- (मायूसी से) "सच में?"


     अविनाश ने उदास होकर कहा, फिर खामोश हो गया।


नीरज :- "अरे तुम तो उदास हो गए, मजाक कर रहा था यार। अब हर बात यूं दिल पर मत लो।"


         दोनों हाथों में हाथ लिए बैठे रहे, पर खामोशी पसर गई थी। नीरज डबडबाई आंखों से स्क्रीन पर आंखें जमाए रहा। और अविनाश ना जाने किन ख्यालों में गुम था। इंटरवल के बाद इधर-उधर की बातें होती रही, पर मन की बात कहने से दोनों बचते रहे। दिन फिर पहले की तरह ही गुजरने लगे, राते सिसकती रहीं। कितने ही अनसुलझे सवाल थे, लेकिन जवाब कौन देता। घर में अब नीरज की शादी के लिए लड़की की तलाश तेज हो गई थी। चाह कर भी वह कुछ नहीं कर सकता था। आखिर किस बिनाह पर मना करता सब को। अविनाश ने  भी तो आज तक उससे कुछ कहा ही नहीं था। काश कि कभी बताता कि उसके दिल में है क्या। भविष्य को लेकर क्या सोचता है वह। एक दिन नीरज की विवाहिता बड़ी बहन, जो आगरा में ही रहती थी। घर आई, तो उसे बताया, कि उन्हें एक दिन रास्ते में अविनाश मिला था, और उसने बोला था कि नीरज को उसे कॉल करने के लिए बोलिएगा। पर वह उसे यह बात बताना भूल गई थी। यह सुनकर वह बेचैन हो उठा। कुछ दिन पहले ही उसके घर में फोन लग गया था। बड़ी बेकरारी से दिन गुजरा, उसने रात में मौका मिलते ही, अविनाश का नंबर डायल किया। "हैलो!!" उस तरफ से फिर से उसकी मां थीं।


नीरज :- 'नमस्ते आंटी!! नीरज बोल रहा हूं!!!"


अविनाश की मम्मी :- "नमस्ते बेटा!! कैसे हो? अब तो तुम ना घर आते हो ना फोन करते हो??"


नीरज :- "जी मैं ठीक हूं!! टाइम ही नहीं मिलता। पढ़ाई, टीचिंग इन सब में ही पूरा दिन निकल जाता है।"


अविनाश की मम्मी :- "अच्छा है बिजी हो।  खाली दिमाग शैतान का घर बन जाता है, जैसे हमारे बेटे का बना हुआ है।"


नीरज :- "अवि घर पर है आंटी???"


अविनाश की मम्मी :- "नहीं बेटा। वो जयपुर गया है किसी काम से। कोई खास बात???"


नीरज :- "नहीं बस यूं ही सोचा हालचाल ले लूँ।"


      कहकर उसने बात टाल दी। पर मन में बड़ी कोफ्त हुई कि जब फोन करो कभी नहीं मिलता। मन फिर मायूस हो गया। "बहुत हो गया अब मैं भूल जाऊंगा उसे। जब उसे मेरी कोई परवाह ही नहीं है, तो मैं क्यों पागल हो रहा हूं। आज से मैं उसे अपनी जिंदगी से निकाल फेंकता हूं।" वह बड़बड़ाने लगा। उसने अविनाश के सारे ख़त, तस्वीर और उपहार जला दिए। किताबों में सूखे हुए गुलाब के फूल मसल कर चूर चूर कर दिए। और सारी रात रोते हुए गुजार दी।


     कुछ दिन बाद नीरज के घर वालों को एक रिश्ता बहुत ही पसंद आया। और दोनों पक्षों की सहमति से शादी तय कर दी गई।वह लड़की मुरादाबाद के रहने वाली थी। अतः तय हुआ कि शादी वहीं जाकर की जाएगी, और अपने परिचितों के लिए सगाई व प्रीति भोज का कार्यक्रम आगरा में करने का निर्णय लिया गया। शादी में ज्यादा दिन नहीं थे, अतः तेजी से तैयारियां होने लगी। खरीदारी और सब को निमंत्रण देने के काम में दिन कैसे उड़े जा रहे थे पता ही ना लगा। अविनाश को बुलाए या ना बुलाए, वह कुछ निश्चय नहीं कर पा रहा था। आखिरकार सगाई से एक दिन पहले, उसने अविनाश को निमंत्रित करने का फैसला ले लिया। खाने से निपट कर उसने धड़कते दिल से फोन लगाया। "हेलो!!!" इस बार अविनाश की आवाज थी।


नीरज :- "हेलो.....अवि??"


अविनाश :- (हैरानी से) "हां नीरज???"


नीरज :- "हाँ"


अविनाश :- "कितने महीनों से तुम्हारे फोन का इंतजार कर रहा था, तुमने किया क्यों नहीं??"


नीरज :- "किया तो था!!!"


अविनाश :- "कब???"


नीरज :- "तुम्हारा मैसेज काफी लेट मिला था मुझे। दीदी भूल गई थी बताना। जब याद आया तो बताया, तो मैंने उसी दिन फोन किया था। पर हमेशा की तरह तुम फोन पर नहीं थे। आंटी से बात हुई थी। तुम जयपुर गए हुए थे।"


अविनाश :- "अच्छा!!! तो मां शायद बताना भूल गई होंगी, कि तुमने कॉल किया था।"


नीरज :- "कोई जरूरी काम था क्या???"


अविनाश :- "हां!!! तुमने भविष्य के लिए कुछ सोचा है नीरज???"


नीरज :- "क्या सोचूं???"


अविनाश :- "अब मैं सेटल हो गया हूं। अपना बिजनेस कर लिया है। इतना कमाने लगा हूं, कि परिवार की जरूरतें भी पूरी कर सकूं, और हम दोनों की भी।"


नीरज :-  "मुबारक हो!!"


अविनाश :- "तुम मेरे साथ रहोगे नीरज?? (एक वज्र सा गिरा और नीरज ने खुद को लहूलुहान महसूस किया) आई लव यू सो मच!!"


नीरज :- "तुम यह बात आज कह रहे हो, अवि!!! (वह कराह उठा) कब से तुम्हारे मुंह से यह सुनने के लिए तरस रहा था मैं!! (वह सिसक पड़ा)


अविनाश :- "मैं तब तक तुमसे कुछ नहीं कहना चाहता था, जब तक मैं अपने पैरों के नीचे पुख्ता जमीन ना बना दूं। आज हालात इस काबिल हो चुके हैं। और मैंने अपने परिवार में भी अपनी पसंद के बारे में खुलकर सबको बता दिया है।"


नीरज :- "अब क्या फायदा!!! कल मेरी इंगेजमेंट है।"


अविनाश :- "ऐसा मजाक मत करो नीरज!! मैं बर्दाश्त नहीं कर पाऊंगा।"


नीरज :- "तुम्हें बर्दाश्त भी करना पड़ेगा, और इस हकीकत को कबूल भी करना पड़ेगा। मैंने तुम्हें इनवाइट करने के लिए फोन किया था। कल दिन में मेरी रिंग सेरेमनी है और 1 सप्ताह बाद शादी।"


अविनाश :- "तुम सच बोल रहे हो???"


नीरज :- "मुझे झूठ बोलकर क्या मिलेगा!! कल आ रहे हो ना???"


अविनाश :- "नहीं!!!"


नीरज :- "क्यों???"


अविनाश :- "मैं कैसे आ सकता हूं??'


नीरज :- "क्या दिक्कत है??"


अविनाश :- "तुम्हें अपने सामने किसी और का होते कैसे देख पाऊंगा???"


नीरज :- "जैसे मैं खुद को जिंदगी से दूर होते हुए देख लूंगा, जिस आग से मुझे गुजरना होगा, उसकी थोड़ी सी तपिश तुम भी तो बर्दाश्त करके देखो।" (नीरज ने सुबकते हुए फ़ोन रख दिया)



      उस रोज सगाई की रस्म भी सम्पन्न हुई। इतना मायूस और उदास दूल्हा, मधुर ने आज तक नही देखा था। वो अपने दोस्त के दर्द को अच्छे से समझ सकता था। उसने नीरज को एक बार को समझाया भी की अगर वो यहाँ से भाग कर अविनाश के साथ जाना चाहे, तो वो नीरज की हर मदद करने को तैयार है। नीरज ने उसे ऐसा कुछ भी करने से साफ मना कर दिया। 


नीरज :- "यार मैंने इतने सालों बस अविनाश की एक हाँ का इंतज़ार किआ। मैं अविनाश के साथ के आगे, हर किसी की बातें सुनने को भी तैयार था। लेकिन इस सब मे मेरे घरवालों के क्या कसूर। उन लोगों ने तो इस रिश्ते के लिए भी मुझसे बहुत बार पूछा, और मेरे हाँ करने के बाद ही ये शादी तय की। अब मेरे इस फैसले के साथ, कोई दूसरा परिवार और उसकी इज्जत भी जुड़ चुकी है। तो अब इन सभी लोगो की बेज्जती करने का मुझे कोई हक नहीं।"


     उस रात नीरज की आँखों से केवल आँसू ही नही बहे थे। उन आँसुओ के साथ वो सारे सपने, वो सारे ख्वाब भी बह गए थे। जो वो इतने सालों बुनता रहा था। फिर कुछ दिनों बाद, मुरादाबाद के लिए रवानगी से एक दिन पहले अविनाश, नीरज से मिलने आया। बड़ी हुई दाड़ी, लाल आँखे और चेहरे पे छाई मायूसी के साथ उसने नीरज से बात की।


अविनाश :- "कैसे हो?"


नीरज :- "कैसा हो सकता हूँ, अवि??"


अविनाश :- "नीरज हमेशा खुश रहना!!!"


नीरज :- "तुमने क्यों इतना समय लगा दिया अवि!!!"



       वहाँ कमरे में उन दोनों के अलावा कोई और तो मौजूद नहीं था, और ना ही वो दोनों एक दूसरे से कुछ बोल भी रहे थे। लेकिन उन दोनों की ख़ामोशी आपस मे ना जाने कितनी बातें कर रही थी। उन दोनों की जुबां तो कुछ नही कह रही थी, लेकिन उनकी आँखों से बहती आँसुओ की धारा, उन दोनों के दिल के हाल को बयां कर रही थी। दोनों ही एक दूसरे के लिए फैसलों के बोझ तले, अपने आने वाले जीवन को दांव पर लगाने को तैयार खड़े थे। लेकिन दोनों ने ही एक ऐसे सफर पर जाने की तैयारी कर ली थी, जिसके ना रास्तों से जान पहचान थी, और ना ही मंजिल का पता।



      अब आगे ये कहानी क्या मोड़ लेकर आएगी। जानने के लिए थोड़ा इंतेज़ार कीजिये।




      





      










Tuesday, November 24, 2020

मिलन - Final Part

 Please read first part of this story, before reading this part, than you will get easily be connected with this final part.



     सुबह की चहल कदमी से जब सौम्य की आँख खुली, तो उसने रोहित को अपने पैरों के पास बैठा पाया। रोहित की आँखे अभी बन्द थी, और वो गहरी नींद के आगोश में था। सोते हुए रोहित के चेहरे पर जो मासूमियत का नूर छाया हुआ था, सौम्य के लिए रोहित के चेहरे से नज़रें हटा पाना थोड़ा मुश्किल हो रहा था। रोहित की अब तक कि बातों, और उसके व्यवहार से, सौम्य अब तक ये तो समझ चुका था, की रोहित एक नेक दिल इंसान है, और उसके मन में कहीं ना कहीं सौम्य के लिए जगह भी बन चुकी है। लेकिन क्या रोहित भी सौम्य की तरह, लड़कों में रुचि रखता है??? इस बात की पुष्टि अभी तक सौम्य को नही हो पाई थी। सौम्य रोहित के चेहरे को निहार ही रहा था कि ट्रेन एक स्टेशन पर रुकी। सामने वाली सीट पर बैठे बाबा, रोहित को धन्यवाद कहने के लिए, उसके कंधे पर हाँथ रखने ही वाले थे कि सौम्य ने उन्हें रोक दिया।


सौम्य :- "नहीं बाबा, अभी गहरी नींद में है, मत उठाइये।"


बाबा :- "ठीक है बेटा, जब ये उठ जाए तो मेरी ओर से इसे धन्यवाद कह देना। बहुत ही गुणी बच्चा है। रात में भी मेरी मदद की और तुम्हे कोई परेशानी ना हो, इसलिए तुम्हे सोते से उठाया नही, और रात भर यही तुम्हारे पैरो के पास बैठा रहा। आज कल कोई नही सोचता दूसरों के बारे में। भगवान इसकी सभी मनोकामनाएं पूरी करे।"



      बाबा रोहित को ढेरों आशीर्वाद देकर ट्रैन से उतर गए। और ट्रेन आगे बढ़ दी अपने आखिरी पड़ाव, कानपुर की ओर। तभी रोहित की भी आँख उसके मोबाइल पर आते एक फ़ोन कॉल से खुल गयी।



पराग (रोहित का मौसेरा भाई) :- "हाँ भैया!! कहा तक पहुंची आपकी ट्रेन। मौसी ने तो सुबह से बवाल ही मचा रखा है, और हमें यही स्टेशन पर बिठवा दिया है।"


रोहित :- (आँखे मलते हुए) "बस आ ही गए समझो, अब ज्यादा इंतेज़ार नही करना पड़ेगा तुम्हे।"



      फ़ोन रख कर रोहित ने सौम्य की ओर देखा। और सौम्य को देख कर ही रोहित के चेहरे पर मुस्कान छा गई। बाहर खिड़की से आती सुबह की ठंडी हवा, और उगते सूरज की मद्धम किरणों में, सौम्य का चेहरा पहले से भी ज्यादा हसीन नज़र आ रहा था। दोनों बिना कुछ कहे ही बस एक दूसरे की आँखों मे डूबने की कोशिश कर रहे थे। मानो नज़रों से ही एक दूसरे के दिल का हाल जान लेना चाह रहे हो। सौम्य को तो रोहित के मन का थोड़ा बहुत अंदाज़ा हो गया था, लेकिन सौम्य के अब तक के बर्ताव से, रोहित को ज़रा सी भी भनक नही थी, की सौम्य के मन मे क्या है। दोनों ही एक दूसरे को कहना तो बहुत कुछ चाहते थे, लेकिन इस हसीन सफर के बाकी बचे कुछ पलों को खराब भी नही करना चाहते थे। दोनों ही बस एक दूसरे की नज़रों में ही खोये हुए थे। नैनों की जुगलबंदी कुछ यूं चली की, दोनों को ही समय का होश ही नही रहा। कब कानपुर स्टेशन आ गया और ट्रेन स्टेशन पर आ कर खड़ी भी हो गयी, सारी सवारियां भी उतर गई, लेकिन ना तो दोनों की पलकें भी झपकी, और ना ही उन्हें पता भी चला कि ट्रेन रुक चुकी है। दोनों का सम्मोहन तब भंग हुआ, जब पराग उनके पास पहुंचा।


पराग :- (रोहित के कंधे को हिलाते हुए) "लो हम आपको सारे स्टेशन पर ढूंढ रहे हैं, और आप यहां मौन धारण किये बैठे हो।"


रोहित :- (आश्चर्य से) "अरे इतनी जल्दी कानपुर आ गया। हमें तो पता भी नही चला।"



      पराग ने रोहित का बैग उठाया और ट्रेन से बाहर आने लगा। और रोहित ने सौम्य का बैग उठाने के लिए उसका बैग पकड़ा ही था, की सौम्य ने उसे रोक दिया।



सौम्य :- "अरे क्या कर रहे हैं रोहित जी। हम उठा लेंगे।"


रोहित :- "सौम्य जी अब आप कानपुर के ही नही, हमाए भी मेहमान है, तो थोड़ी मेहमान नवाज़ी करने दीजिए।"


      रोहित सौम्य का बैग लेकर ट्रैन से बाहर आ गया। स्टेशन पर रोहित ने सौम्य को उसका बैग पकड़ाया, और उस से बात करने ही वाला था कि, पराग ने उसे टोक दिया।


पराग :- "अब चलो भी भैया!!! मौसी अब तक पचासों फ़ोन कर चुकी हैं। आपको तो कुछ नही कहेंगी, लेकिन हमाई तो खटिया खड़ी हो जाएगी।"


      रोहित ने पराग से 2 सेकण्ड्स का इशारा किया, और सौम्य का मोबाइल नंबर मांगने के लिए उसकी ओर मुड़ा ही थी, की तभी वहां, सौम्य को लेने, उसकी बुआ का लड़का शेखर आ गया।


पराग :- "अरे शेखर जी। आप भी किसी को लेने आये है क्या??"


शेखर :- (सौम्य की ओर इशारा करते हुए) "हाँ!!! इन्हें ही लेने आये हैं। ये सौम्य हैं!!! हमारे मामा के लड़के।"


पराग :- "अच्छा!!! हम भी रोहित भैया को लेने ही आये थे।"


      रोहित और सौम्य वहां खड़े, उन दोनों को आश्चर्य से ही देखे जा रहे थे, की ये दोनों एक दूसरे को कैसे जानते हैं।


शेखर :- (रोहित की ओर अपना हाँथ बढ़ाते हुए) "अच्छा तो आप हैं रोहित जी!!! जीजाजी से बड़ी तारीफ सुने हैं आपकी।"


      रोहित ने शेखर से हाँथ तो मिला लिया, लेकिन अभी उसके चेहरे पर कई प्रश्नवाचक चिन्ह बने हुए थे। जिनका उत्तर पाने के लिए उसने पराग की ओर, बड़ी आस भारी निगाहों से देखा।


पराग :- "अरे ज्यादा कंफ्यूजाइये नहीं। हम बताते हैं। ये हैं शेखर जी!!! अपनी होने वाली मामी के भाई।"



      पराग के मुँह से ये बात सुन कर तो, जैसे रोहित के कानों में मिश्री सी घुल गयी थी। अब ना तो सौम्य के साथ का ये सफर आख़िरी था, और ना ही ये मुलाकात। अब  सौम्य से भी रिश्तेदारी जो हो गयी थी। इस बात के बारे में सोचने से ही, रोहित के चेहरे पर एक अलग ही मुस्कान छा गयी थी। यूं तो रोहित का सौम्य से दूर जाने का मन तो नही हो रहा था, लेकिन अपने मन को मार कर, और दिल को फिर से मुलाकात की तसल्ली देकर, वो पराग के साथ, सौम्य को अलविदा कह कर, अपने घर आ गया था। 


      यूं तो शादी वाले घर मे पहले से ही कई मेहमान थे, ढोलक के थाप थे, महकते फूलों की सजावट के साथ, टिमटिमाती लइटों की जगमगाहट थी, शोर शराबा था, रौनक थी। लेकिन फिर भी रोहित के घर आते ही, सारे माहौल में ऐसा जोश भरा, मानो किसी मोहल्ले की गई लाइट कुछ देर बाद वापस आ गयी हो। अलका जी सारे काम छोड़, भागकर आईं और रोहित को अपने गले से लगा लिया।


अलका जी :- "कितने दुबला गए हो, खाना वाना टाइम से खाया करो।"


रोहित :- "अरे मम्मी आपको तो हम हर बार दुबले ही लगते हैं। अब आप अपना लाड़ प्यार दिखाओ, और कुछ खिलाओ हमे, बहुत तेज भूख लगी है।"


अलका जी :- (अपनी छोटी बहन को आवाज़ लगाते हुए) "अरे सरोज!!! बन गए क्या आलू के पराठे??? देखो रोहित आ गए हैं।"(अपनी दूर की मौसी को रोहित के बारे में बताते हुए) "देखो मौसी, ये हैं रोहित, इंदौर के बहुत बड़े कॉलेज में पढ़ाई कर रहे हैं, अगले साल तक बोहोते अच्छी नौकरी भी पा लेंगें। बस फिर उसके बाद इनकी शादी में बुलाएंगे आपको, और कोई बहाना नही सुनेंगे, आना ही पड़ेगा....."


रोहित :- (अलका जी के कान में फुसफुसाते हुए) "क्या मम्मी आप फिर से शुरू हो गईं। कितनी बार मना किये हैं आपको, ऐसा करने से।"


अलका जी :- "अरे इसमे शर्माने की क्या बात है??? जब सबको पता होगा, की तुम क्या कर रहे हो क्या नहीं, तभी तो कोई अच्छा शादी का रिश्ता बताएगा तुम्हाए लिए।"



    ये अलका जी का हर बार का किस्सा हुआ करता था। जब भी उन्हें मौका मिलता था, वे अपने बेटे की तारीफों के पुल बांधना शुरू कर दिया करती थीं। और अलका जी की ये आदत, रोहित और उसके पापा, दोनों को ही बिल्कुल पसंद नहीं थी। लेकिन दोनों की ही अलका जी के आगे एक ना चलती थी। होता वही था, जो अलका जी चाहती थीं। इसलिये रोहित अपनी मम्मी की बातों को नजरअंदाज कर, पराग के साथ, अपने मामा से मिलने चला जाता है। 



     चादर को सर तक ढके, गोलू मामा तो ऐसे लेटे थे, जैसे ये किसी और कि शादी में आये दूर के रिश्तेदार हों। रोहित ने जाकर जब उनके ऊपर से चादर खींचा, तब जाकर सारा मामला साफ हुआ। गोलू मामा सो नही रहे थे, बल्कि होने वाली मामी से फ़ोन पर बतिया रहे थे।


रोहित :- "वाह हमाए प्यारे मामा, हम वहाँ इतनी दूर से सिर्फ आपके लिए यहाँ तक आये, और आप हमें लिवाने स्टेशन तो छोड़ो, घर के बाहर भी नही आ सके???"


गोलू मामा :- (फ़ोन को कान और कंधे के बीच मे दबाये) "अरे क्या बताए भांजे!! घर की महिलाओं ने हमारा घर से निकलना ही बंद करवा दिया है। और हम नीचे आ ही रहे थे कि तब तक तुमाई होने वाले मामी का फ़ोन आ गया।"


रोहित :- "बोहोत सही मामा!!!! अभी शादी हुई नही, और हम से ज्यादा मामी प्यारी हो गयी आपको!!!"


गोलू मामा :- "अरे नही भांजे, ऐसी कोई बात नहीं। वो तुमाई मामी ने तुम्हें थैंक्यू कहने के लिए ही फ़ोन किआ है। तुमने उनके भाई, सौम्य का रास्ते भर जो ख्याल रखा उसके लिए।"


रोहित :- "लाईये जरा हमाई बात कराइये।" (गोलू मामा के हाथ से फ़ोन लेते हुए) "नमश्कार मामी जी! कैसी हैं आप??"


लतिका (रोहित की होने वाली मामी) :- "हम बहुत अच्छे हैं रोहित जी, आप कैसे हैं? सुने हैं कि आप रात भर ठीक से सो भी नही पाए!!!"


रोहित :- "बिल्कुल ठीक सुना है आपने मामी जी, वैसे खातिरदारी करवाना तो लड़के वालों के जिम्मे होता है, लेकिन चलिए कोई बात नही।"


लतिका :- "अरे आप शाम को आएंगे, तो अच्छे से खातिरदारी होगी आपकी। लेकिन सच कहें रोहित जी, पहले दीदी मतलब आपकी मम्मी और आपके मामा, दोनों से आपकी बहुत तारीफ सुनी थी, तो लगा कि ये लोग कुछ बड़ा चढ़ा कर बोल रहे होंगे। लेकिन आज जब सौम्य ने भी आपकी तारीफ की, तो लगा कि आप शायद सच मे ही तारीफ के लायक होंगे।"


रोहित :- "अब ये तो आप हमसे मिलकर बताना मामी जी। वैसे हैं कहाँ आपके भाई साहब????"


लतिका :- "रात को ही मिल लीजियेगा।"



      कुछ और यहां वहां की बातें कर रोहित ने फोन रख दिया और अपने मामा और पराग से बतियाने लगा। इतने दिनों तक जो वह इन सब लोगों से दूर था, तो उन लोगों को अपने हॉस्टल के, इंदौर के कई कहानी किस्से सुनाने लगा। और रह रह कर उसका ध्यान हाँथ में बंधी घड़ी की ओर जाता रहा। अब रोहित के लिए शाम तक का इंतज़ार करना बहुत भारी होता जा रहा था। रोहित ने मामा को डांस के स्टेप भी सीखा दिए, उनके रात को पहनने वाले कपड़ों को भी व्यवस्थित लगा दिया, अपने कपड़ों को भी तैयार कर लिया। मम्मी के साथ बाकी रिश्तेदारों से भी मिल लिया। फ़्री होने के बाद जब घड़ी की ओर देखा, तो अभी तो बस दोपहर के 1 ही बजे थे। अभी तो पूरे 7 घण्टे बाकी थे, बारात निकलने में, और सौम्य से मिलने में। दोपहर का खाना खा कर, रोहित कुछ देर के लिए गोलू मामा के कमरे में ही, थोड़ा आराम करने के लिए लेट गया। और रात भर ठीक से ना सो पाने के कारण उसे तुरंत नींद भी आ गई। और ये नींद का झोंका साथ ले कर आया एक खास सपना, जिस सपने में था सौम्य, उसका भोलापन, उसका नकली गुस्सा और उसकी सादगी। रोहित का ये साधारण सा सपना, सौम्य की वजह से बहुत खास हो गया था। रोहित अपनी सेक्सुअलिटी को लेकर, अपने स्कूल के अंतिम वर्षो में ही सजग हो चुका था, लेकिन अपने घरवालों, और समाज मे मज़ाक का पात्र ना बनने के उद्देश्य से, उसने अपनी इस सच्चाई को बस अपने तक ही छुपा कर रखा हुआ था। यूं तो कानपुर के कॉलेज, और फिर इंदौर के कॉलेज में उसे काफ़ी लड़के पसंद भी आये, लेकिन उसने कभी उन लोगों के बारे में ज्यादा गंभीरता से विचार नही किआ। लेकिन सौम्य के साथ का ये कुछ घंटों का सफर मात्र, उसके दिल और दिमाग पर इतनी गहरी छाप छोड़ चुका था, की अब सौम्य ने उसके सपनों में भी अपनी जगह बना ली थी। शाम 5 बजे मामा ने रोहित को उठाया, और रात की तैयारियों का एक मुआयना करने को कहा। रोहित ने भी सभी इन्तेज़ामो का निरीक्षण किया। इन सब मे 7 बज चुके थे। और सभी लोग बारात के लिए तैयार भी होने लगे थे। गोलू मामा को तैयार कर, रोहित भी झट से तैयार हो गया। जितनी खुशी उसे मामा की बारात की थी, उससे कहीं ज्यादा सौम्य से मिलने की।


      बारात बड़ी धूम धाम, नाच गाने के साथ, अपने गंतव्य तक जा पहुँची। बारात आगमन की सभी रस्मों के बाद, दूल्हे को प्रांगण में बने स्टेज पर ले जाया गया, जहाँ जय माला का प्रोग्राम किआ जाना था। स्टेज पर गोलू मामा के साथ, उनके कुछ दोस्त, उनके सभी भांजे भंजियाँ, उनका उत्साह बढ़ाने के लिए मौजूद थे। और तभी, प्रांगण के एक कोने से आगमन हुआ, दुल्हन का। एक चमकीली चादर को, चारो कोनो से पकड़े उनके भाई, और उसके नीचे दुल्हन, उसकी सहेलियों और बहनों के साथ स्टेज तक जा पहुँची। यूं तो किसी भी शादी में, जब दुल्हन का आगमन होता है, तो वहाँ मौजूद सभी लोगों की नजरें उसी दृश्य में अटक सी जाती हैं। लेकिन इस शादी में, बस वो 2 नज़रें कुछ अलग सी थीं, जो सभी को नजरअंदाज कर, आपस मे बंधी हुई थीं। वो दोनों नज़रें दूल्हे, दुल्हन की ना होकर, रोहित और सौम्य की थीं। रोहित को सुबह से ही जिस पल का इंतज़ार था, अब वो पल आ चुका था। नीले रंग की चमकीली सी शेरवानी उस पर काले रंग का दुपट्टा लिए, सौम्य बेहद ही मनमोहक लग रहा था। उसने अपने सम्मोहन में रोहित को कुछ यूं बांध रखा था, की गोलू मामा की शादी की एक बहुत खास रस्म, जयमाला, सम्पन्न हो चुकी थी, और रोहित को उसकी कोई सुध भी नही थी। अब सभी लोग स्टेज से नीचे उतर रहे थे, और दूल्हा - दुल्हन के साथ, सभी के फोटो खिंचवाने का सिलसिला शुरू होना था। पराग ने धक्के के साथ, रोहित का सम्मोहन भंग करवाया, और उसे स्टेज से निचे लेकर आया।


पराग :- "क्या हुआ है भैया आपको??? हम सुबह से ही देख रहे हैं, आप कहीं खोये खोये से हो। क्या कोई मामी की सहेली या बहन पसंद तो नहीं आ गयी आपको???"


रोहित :- "हाँ भाई, कुछ ऐसा ही समझ लो!!!'


पराग :- "क्या बात कर रहे हो भैया??? हम अभी मौसी को बताते हैं, वो तो बहुत ही खुश हो जाएंगी। बेचारी कितनी परेशान है आज कल, अपनी बहू की खोज में।"


    

     ये कहते हुए, पराग, रोहित को छेड़ने के बहाने से, अलकायदा जी की और दौड़ पड़ता है। और रोहित भी उसे रोकने के लिए, उसके पीछे भागता है। और जा टकराता है, सौम्य से।



सौम्य :- "अरे अरे रोहित जी, संभाल कर। कहाँ भागे जा रहे हैं?"


रोहित :- "सॉरी सौम्य जी!!! वो बस..... वैसे आज आप बहुत ही अच्छे लग रहे हैं। ये रंग बहुत जच रहा है आप पर!"


सौम्य :- "शुक्रिया!! आप का भी ये मेहरून कुर्ता अच्छा लग रहा है, लेकिन इस पर जो आपने ये सफेद जैकेट डाला हुआ है, वो इसके रंग को दबा दे रहा है। आपको इसके ऊपर काले रंग की जैकेट पहननी चाहिए थी।"


रोहित :- "अरे सौम्य जी, अब आपके यहाँ होते हुए, हमाए ऊपर कोन इतना ध्यान देगा।"


सौम्य :- (अपने एक कज़न भाई से मिठाइयों से भरी थाली मंगवा कर) "हम हैं ना आपको देखने के लिए, ये लीजिये, अब से आपकी ख़ातिरदरी शुरू होती है। हमें आपकी पसंद नापसंद का ज्यादा अंदाजा नही था, इसलिए यहाँ  जो कुछ भी मौजूद था, वो सब आपके सामने हाज़िर है।"


रोहित :- "अरे सौम्य जी, हम तो मामी जी से बस मज़ाक़ किये थे, आप तो सीरियस ही हो गए।"


सौम्य :- "आप लड़के वाले हैं, आपकी खातिरदारी हम सीरियसली ही करना चाहते हैं।"



       सौम्य ने अपने सभी भाई बहनों के साथ मिलकर, सभी बारातियों की खूब खातिरदारी की। सभी बारातियों का बहुत ख़्याल भी रखा। सौम्य का ये रूप देख कर, रोहित थोड़ा आश्चर्यचकित भी था। कल रात में गुस्से को अपने चेहरे पर पहने हुए वाले सौम्य, और आज रात के, चेहरे पर मुस्कान लिए, सबकी पसंद नापसंद का ख्याल रखने वाले सौम्य में, ज़मीन आसमान का अंतर था। जो सिर्फ रोहित को ही समझ आ रहा था, क्योंकि उसके अलावा, किसी ने भी कल वाले सौम्य को जो नही देखा था। लेकिन सौम्य के इस रूप ने भी, रोहित के दिल को और ज्यादा उसके करीब ही ला दिया था। और कल सौम्य बनावटी गुस्सा दिखा रहा था, सौम्य का आज का रवैया इस बात का गवाह था। उधर पराग ने भी मज़ाक मस्ती में, अलका जी और बाकी सभी लोगो को, रोहित भैया को पसंद आई लड़की की खबर को, सब तक पहुंचा दिया था। तो सभी लोग, वहाँ मजूद सभी लड़कियों की तरफ इशारा कर कर के, रोहित से उसकी स्वीकृति माँगने में, और रोहित को छेड़ने में लगे थे। जो कि फेरो का समय आते आते, रोहित के लिए सिर दर्द बन चुका था।



   फेरों से पहले, दूल्हा - दुल्हन के लिए, खाने की एक मेज सजाई गई। जहां दूल्हे ओर उनके कुछ रिश्तेदारों को बड़े ही सम्मान के साथ, लड़कीवालों ने खाना खिलाया। अब लड़कीवालों की तरफ से जो भी लड़की, रोहित को खाना परोसने आती, तो वहाँ बैठे रोहित के सभी रिश्तेदार, कुछ ना कुछ आवाजें निकालते, तालियां बजाते, और रोहित को छेड़ते। इन सब से तंग आकर, कुछ देर बाद, रोहित गोलू मामा को, फेरों के लिए कपड़े बदलवाने के लिए वहाँ से लेकर आ गया। और गोलू मामा को फेरों के लिए तैयार करवा कर, जब उसने खुद को आईने में देखा, तो उसे सौम्य की कही बात भी याद आ गयी, की मेहरून कुर्ते के साथ काले रंग की जैकेट ज्यादा अच्छी लगती।



       कुछ देर बाद, सभी लोग मण्डप के नीचे फेरों के लिए एकत्रित हुए। रोहित सबसे नज़रें बचा कर, सौम्य के पास जा बैठा। और जब सौम्य की नज़र रोहित पर पड़ी, तो सौम्य के चेहरे पर अनायास ही एक मुस्कान छा गयी।



सौम्य :- "अरे वाह रोहित जी। ये ब्लैक जैकेट तो सच मे ही बहुत खिल रही है आपके ऊपर।"


रोहित :- "अब आपकी सलाह को कैसे टाल सकते थे?"



       बस युही सारी रात, रोहित और सौम्य की आँख मिचोली चलती रही। रोहित के अथक प्रयासों के बाद भी, वो सौम्य के मन की बात को समझने में नाकामयाब ही रहा। उसने कोशिशें तो बहुत की, लेकिन इतने सारे रिश्तेदारों के बीच, और पराग की उस मस्ती के बाद तो सबका खास ध्यान रोहित के ऊपर ही होने की वजह से, वो जिस बात को अपने मन मे लेकर यहाँ आया था, की सौम्य के मन को टटोलेगा, उसके मन की बात को जानने की कोशिश करेगा। वो ऐसा करने में नाकामयाब ही रहा। और धीरे धीरे, सुबह भी होने आए थी और सभी विदाई की तैयारियों में भी लग चुके थे। बातों बातों में रोहित को मालूम लग चुका था, की सौम्य शाम की ट्रेन से वापस इंदौर भी जा रहा है। तो अब रोहित के पास समय भी कम ही था, सौम्य को अपने मन की बात बताने ओर उसके मन की बात को जानने का। इसलिए उसने हिम्मत करके, सौम्य को कुछ देर के लिए अपने साथ, उस प्रांगण से बाहर चलने को मना लिया। और दोनों प्रांगण की पार्किंग में जा पहुँचे।



सौम्य :- "क्या बात हो गयी रोहित जी??"


रोहित :- "वो मैं आपसे कुछ कहना चाहता हूँ.. लेकिन मुझे समझ नही आ रहा कि मैं कहाँ से शुरू करू।"


सौम्य :- (रोहित के मन की बात को भांपते हुए) "एक काम करते हैं रोहित जी, कल दोपहर में आपकी उधार चाय के लिए मिलते हैं, फिर बात करेंगे। अभी दीदी की विदाई भी होनी है, और आपके घरवाले भी आपको खोज ही रहे होंगे। (वहाँ से जाते हुए) रोहित जी आपसे एक बात कहें, आप जो भी हमसे कहना चाहते हैं ना, वो कहने से पहले अपने परिवार के बारे में अच्छे से सोच लीजियेगा। क्योंकि हमें रिश्तों में मिलावट बिल्कुल पसंद नहीं है।"



   अपनी बात कह कर, सौम्य वहाँ से चला जाता है। और रोहित वहां खड़ा खड़ा, सौम्य की कही बात के बारे में ही सोचता रहता है। कि वो यहाँ सौम्य के मन की बात जानने के लिए उसे बुलाकर लाया था, और सौम्य तो उसे और ज्यादा उलझा कर ही चला गया। इतने में पराग रोहित को ढूँढता हुआ वहाँ आ जाता है, और रोहित को वहां से लेकर चला जाता है। कुछ देर में ही, दुल्हन को विदा करा कर, सारा परिवार हँसी खुशी घर वापस आ जाता है, और नई दुल्हन के गृह प्रवेश की रस्म भी शुरू हो जाती है। फिर कुछ लोग रात भर की नींद पूरी करने में लग जाते हैं, और कुछ यहां वहां के काम निपटाने लगते हैं। और रोहित, वो तो अभी भी सौम्य की कही बात का अर्थ ही ढूंढने में खोया रहता है।



       दोपहर होते ही, रोहित सौम्य को फ़ोन करता है, और उसे एक रेस्टोरेंट का पता बताता है, और वहाँ पहुंच कर, सौम्य का इंतज़ार करने लगता है। सौम्य भी रोहित के बताए पते पर पहुंच जाता है, और रोहित से मुलाकात करता है। रोहित कुछ कहे उससे पहले ही सौम्य रोहित से कहता है।



सौम्य :- "रोहित जी मैं गे हूँ, और मुझे ये बात बोलने में कोई संकोच भी नही है। मेरे घरवाले, और मेरे खास दोस्त भी इस बात से अवगत हैं। मैं आपको एक बात और बताना चाहता हूँ। नागपुर में मेरा एक बॉयफ्रेंड भी था, हम साथ मे ही कॉलेज में थे, और हमारा रिलेशन 4 सालों तक चला। हम दोनों ही एक दूसरे से बहुत प्यार भी करते थे। काफी अच्छा समय हमने साथ बिताया है। हम हमेशा शाम की चाय के लिए साथ ही जाते थे, इसलिए अब जब भी चाय पिता हूँ तो उसकी याद आती है।......."


रोहित :- (सौम्य को बीच मे ही रोकते हुए) "क्या आप अभी भी उससे प्यार करते हैं???"


सौम्य :- "नहीं वो बात नहीं है, लेकिन मैं अभी आपसे कुछ और बात करना चाहता हूँ।"


रोहित :- "सॉरी!!!!"


सौम्य :- "कोई बात नही!!! मैं आपकी भावनाओं को अच्छे से समझ सकता हूँ। मैं ये भी जनता हूँ कि आप मेरी तरफ आकर्षित है। और मैं भी कुछ हद तक आपको पसंद करने लगा हूँ। लेकिन मैं जो आपसे कहना चाहता हूं, वो बात थोड़ी अलग है, मैं आशा करता हूँ कि आप उसे समझेंगे।"


     सौम्य अपनी बात बीच मे ही रोक कर, अपना मोबाइल निकलता है, और उसमें एक छोटे से परिवार की फ़ोटो रोहित को दिखाता है। जिसमे एक पति एक पत्नी और उनकी गोद मे एक छोटा सा बच्चा होता है।



सौम्य :- "ये किशोर है, मेरा पहला प्यार। और मेरे मन मे उसके लिए कोई कड़वाहट भी नही है। ये उसका फैसला था, और वो इस फैसले के साथ खुश है। मुझे इस बात का भी कोई मलाल नही, की उसने मुझे छोड़ कर अपने परिवार वालों के कहने पर किसी लड़की से शादी की। लेकिन हाँ, मुझे अफसोस है, की उसने शादी करने के बाद भी, मुझसे रिश्ता जोड़े रखने की बहुत कोशिशें की। और उसी के चलते, मैंने स्वेछा से अपने घर को छोड़ कर, इतनी दूर ट्रांसफ़र ले लिया। ये मेरा फैसला था, और शायद इसके चलते ही, वो अपने जीवन मे खुश रह सके, और मैं अपने।"


रोहित :- "माफ़ी चाहूंगा सौम्य जी, लेकिन हमाई कुछ समझ नहीं आ पा रहा है, की आप मुझसे क्या चाह रहे हैं??"


सौम्य :- "मैं आपसे सिर्फ ये कहना चाहता हूँ रोहित जी, की अगर मुझे एक और टूटे रिश्ते का दर्द सहना है, तो उससे बेहतर मैं अकेला रहना ही पसंद करूँगा। कल मैंने आपके घरवालो की तरफ से जो भी महसूस किया, और जितना भी आपकी मम्मी जी से बात की, वे सभी आपकी शादी को लेकर बड़े उत्साहित हैं। और मैं सिर्फ अपनी खुशी के लिए, इतने सारे लोगो के सपने नही तोड़ना चाहता। क्योंकि सपनों के टूटने का दर्द में अच्छे से महसूस कर सकता हूँ। और जैसा मैंने आपसे कल कहा, की मुझे रिश्तों में मिलावट बिल्कुल पसंद नही है। तो मैं, एक ही समय पर दो रिश्तों को साथ मे जीने के भी पक्ष में नही हूँ। तो हमारे लिए यही बेहतर होगा, की हम अपनी भावनाओं को बस यहीं तक सीमित रखें। और अपनी अपनी ज़िंदगी मे आगे बड़ें।"



     सौम्य अपनी बात कह कर चुप हो जाता है। और कुछ देर के लिए वहां एक दम सन्नाटा छा जाता है। सौम्य रोहित के कुछ कहने का इंतज़ार करता है, और वहीं रोहित, सौम्य द्वारा कही गयी सारी बातों को अपने ज़ेहन में बैठाने की कोशिश करता है। और रोहित की खामोशी का मतलब समझ कर, सौम्य रोहित से अलविदा लेता है।



सौम्य :- "चलिए रोहित जी, अब हम चलते हैं। शाम को हमारी ट्रेन भी है। आपसे मिलकर सच मे बहुत अच्छा लगा, आप एक सच्चे और नेक दिल इंसान हैं। फिर कभी मौका मिला, तो वापस आएंगे आपके शहर कानपुर। वाक़ई बहुत अच्छा शहर है आपका।"



     सौम्य वहाँ से चला जाता है। दरअसल वो आया तो था रोहित के मन की बात जानने के लिए। और उसे उम्मीद भी थी, की रोहित उसकी बात को समझेगा, और इस रिश्ते को एक मौका देने पर थोड़ा तो जोर देगा। लेकिन रोहित की ख़ामोशी ने सौम्य को, असल जिंदगी का आईना ही दिखा दिया था। यहाँ सब प्यार तो करना चाहते हैं, संभोग भी करना चाहते हैं, लेकिन प्यार के रिश्ते को प्यार से निभाना नही चाहते। सौम्य रोहित की खामोशी से थोड़ा आहात तो था, लेकिन जो दर्द उसे इस रिश्ते में आगे चल कर मिलता, वो रिश्ता शुरू ही ना होने से थोड़ा सहज भी था। अपने पिछले रिश्ते के अनुभवों से, रोहित की खामोशी का भी, सौम्य को ज्यादा बुरा नही लग रहा था। वो इस बात से भली भांति अवगत था, की आज कल समलैंगिक प्यार तो बड़ी आसानी से मिल जाता है, लेकिन उस प्यार को स्वीकार कर, अपने घरवालों की रजामंदी लेना हर किसी के बस की बात नही होती। इसलिए आज के दौर में भी, कई समलैंगिक लोग, अपने मन मे तो किसी और को प्यार करते रह जाते हैं, और समाज के या अपने घरवालों के दबाव में, अपनी सारी इकच्छाओ, भावनाओ को दबा कर, किसी और से शादी कर, अपने जीवन मे आगे बढ़ने की झूठी कोशिशें करते रहते है। जिनमे कुछ लोग तो सफल भी हो जाते है, और सारी जिंदगी उस घुटन भारी ज़िन्दगी में निकाल देते हैं, और कुछ उस झूठी शादी के रिश्ते को ज्यादा दिन नही संभाल पाते, और 2 ज़िन्दगियों को बर्बाद कर देते हैं। 



     थोड़े भारी मन से सौम्य अपनी बुआ जी के घर से, सब से विदा लेकर, कानपुर रेल्वे स्टेशन आ गया था। शेखर, सौम्य की बुआ का लड़का, सौम्य को उसकी ट्रैन में बैठा कर अलविदा कह कर वहां से जा चुका था। और ट्रेन भी धीरे धीरे प्लेटफॉर्म से निकल चुकी थी। चूंकि ट्रैन कानपुर से ही बनकर चल रही थी, तो ज्यादा सवारी भी नही थी। और सौम्य के कूपे में तो बस वो अकेला ही था। सौम्य अपनी सीट पर बैठा, खिड़की से टेक लिए, आँखे बंद कर के रोहित के, और उसके साथ बिताए समय के बारे में ही सोच रहा था। कि एक जानी पहचानी आवाज़ उसके कानों में गूंजी।



"एक्सक्यूज़ मी!!!!! क्या मैं यहाँ बैठ सकता हूँ??"


     सौम्य ने पलट कर देखा, तो ये कोई और नही, रोहित ही था। अपने प्यारे से चेहरे पर सुंदर सी मुस्कान और आँखों मे हल्की सी नमी के साथ, प्यार की चमक लिए, सौम्य के सामने खड़ा था।


सौम्य :- "रोहित जी आप??"


रोहित :- "वो क्या है ना सौम्य जी, कनपुरिया हूँ, ये प्यार मोहब्बत की बात समझने में थोड़ा समय जरूर लेता हूँ, लेकिन एक बार जो समझ लूँ, तो फिर अपने प्यार को खुद से दूर जाने भी नही देता।"


     सौम्य ने कुछ बोलने के लिए अपना मुँह खोला ही था की, रोहित ने उसे ये बोल कर चुप करवा दिया, की "वहाँ आपने बोला और मैंने सुना, अब आप मेरी पूरी बात सुन लेने के बाद ही बोलियेगा।"



रोहित :- "सौम्य जी मैं आपकी इस बात से सहमत हूँ, की अगर मैं आपके साथ रिश्ता निभाता हूँ, तो मैं अपने घरवालों के सपने तोड़ दूंगा। लेकिन जब मेरे घरवालों को इस बात का पता चलेगा कि उनके सपनों की वजह से मेरा सारा जीवन एक घुटन में बीतेगा, तो मैं ये दावे से कह सकता हूँ कि वो अपने सपनो के टूटने से कहीं ज्यादा, मेरा जीवन बर्बाद करने से दुखी होंगे। इसलिए मैं अपने और अपने परिवार वालों की तरफ से आपको निश्चिंत कर देना चाहता हूँ, की हमारी तरफ से आपको एक और टूटे रिश्ते का दर्द बिल्कुल नही सहना होगा। और मैं आपकी रिश्तों में मिलावट की बात से भी पूरी तरह सहमत हूँ। मैं ये आपको यकीन दिलाता हूँ, की आपके रहते मेरे जीवन में मैं, किसी दूसरे चाय पार्टनर को भी नही आने दूंगा, बाकी किसी और पार्टनर का तो सवाल ही नही उठता। और एक आख़िरी बात, मुझे ये अफसोस हमेशा रहेगा कि मैं आपका पहला प्यार नहीं हूं, लेकिन आप मेरे पहले प्यार हैं। और मुझे उसी पहले प्यार की कसम, अगर मैंने आपको आपका पहला प्यार, पूरी तरह से ना भूला दिया तो मैं सच्चा कनपुरिया नहीं।"



      रोहित की बात खत्म होते होते, सौम्य की आँखे आँसुओ से तर हो चुकी थीं। रोहित के चेहरे का तेज और उसकी आँखों की चमक को देखकर, ये कहना बिल्कुल भी गलत नही होगा, की रोहित ने अभी जो कुछ भी कहा है, वो सच्चे दिल से और अपने प्यार पर पूर्ण विश्वास के साथ कहा है। सौम्य ने बिना कुछ कहे, आगे आकर रोहित को अपनी बाहों में भर लिया, और उसके होंठों पर अपने प्यार की छाप छोड़, उसे जोर से अपने गले से लगा लिया।



सौम्य :- (अपने आँसुओ को पोंछते हुए) "आपकी बातों से ऐसा लग रहा, की आप अपने घर मे हमारे रिश्ते की आग लगा आये हैं??"


रोहित :- (सौम्य को अपने गले से लगा कर) "नहीं अभी तो बस चिंगारी छोड़ी है, पराग, गोलू मामा और आपकी दीदी, यानी मेरी मामी को बता आया हूँ। अब मम्मी पापा और बाकी सभी को कैसे बताना है, वो लोग संभाल लेंगे। और अगर उनसे नही संभला, तो कुछ टाइम बाद आपको फिर आना पड़ेगा हमारे शहर कानपुर, लेकिन इस बार मेरा सहारा बनकर।"


सौम्य :- (रोहित को मुस्कुराकर किस करते हुए) "I Love KANPUR ❤️"


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Lots of Love

Yuvraj ❤️


 

       







      


 



 














Tuesday, October 13, 2020

मिलन Part -I

Hello friends,

                       I am again here to present my another story "मिलन".... A log time ago I wrote this story with straight characters, but now I change its theme, with different story ending. Hope you like it as you like my previous work.       



      दोस्तों हमारा नाम रोहित है। हम आईआईएम इंदौर के आखिरी वर्ष के विद्यार्थी हैं, और कानपुर के रहने वाले हैं। दिखने में बहुत हैंडसम हैं, ऐसा सभी बोलते हैं। लेकिन स्वभाव से थोड़े शर्मीले हैं, या यूं कहिए कि बड़े छुपे रुस्तम है, बाकी के कामों में। पढ़ाई में हमेशा टॉपर रहे और थोड़ा मम्मी का बेलन हमारे पिछवाड़े में रहता था, तो अब उस सब की बदौलत यहां तक आ गए हैं। हमारी बातचीत का तरीका बड़ा ही साधारण है। एकदम अपने कनपुरिया मिजाज के हैं। और बड़ा प्रेम भी है कानपुर से, तो एकदम शान से कनपुरिया बनकर रहते हैं। हमारे कॉलेज में भी लोग हमें कनपुरिया भाई जी बुलाते हैं। ऐसा नहीं है कि हमें अंग्रेजी बोलना नहीं आता, एकदम लल्लन टॉप अंग्रेजी बोलते हैं। लेकिन जहां मौका हो वहीं, बाकी तो अपना कनपुरिया लहजा ही हमें बड़ा पसंद है। या यूं कहें शान है ।


"भैया जरा जल्दी चलाइए टैक्सी, हमाई ट्रेन नहीं छूटनी चाहिए। इकलौते मामा की शादी है, और हम कतई अफ़्फोर्ड नहीं कर सकते आज की ट्रेन मिस करना।" रोहित ने जरा चिल्लाते हुए टैक्सी वाले को बोला।


       कल मामा जी की शादी में हमें समय से पहुंचना है। सॉरी इकलौते मामा की शादी में। तो हमाई उत्सुकता आप समझ सकते हैं। पांच बहनों में एकलौते भाई हैं, गोलू मामा!!! जिनकी कल शादी है, कानपुर में। बड़ी ही मन्नतों से उनका जन्म भी हुआ, और अब शादी का रिश्ता भी तय हुआ है। तो सब बहुत खुश हैं। हमाई मम्मी सबसे बड़ी बहन है, और हम सबसे बड़े भांजे हैं, गोलू मामा के। इसलिए बड़े ही करीबी हैं मामा जी के। तो हमाए बिना मामा घोड़ी पर ही नहीं बैठेंगे।  और उतने में ही, मम्मी जी का फोन आ गया।


(रोहित की मम्मी, अलका जी फ़ोन पर) "हां रोहित!!! अरे निकले कि नहीं तुम??? तुम्हारा तो राग ही नहीं समझ आता है हमें। अगर आज पहुंच जाते तो कितना बढ़ियाँ होता, अब कल सुबेरे भी तुम टाइम से पहुंच जाओ, तो हम बाबा आनंदेश्वर का प्रसाद चढ़ाएं।


रोहित :- (झल्लाते हुए बोला) "अरे मम्मी काहे इतना फालतू परेशान हो रही हो। हम जब कह दिए कि हम सुबेरे सुबेरे पहुंच जाएंगे, आप कतई टेंशन ना लो।"


अलका जी :- "वाह बेटा!!! हम अगर टेंशनियाते नहीं, तो आज तुम्हारा एडमिशन वहां नहीं होता। यही कानपुर में ही सड़ रहे होते, कहीं सरकारी डिग्री कॉलेज में। गाड़ी में बैठ जाना, तब हमें एक बार बता देना। गाड़ी पर भरोसा है, तुम पर नहीं है। (अलका जी एकदम तंज भरे शब्दों में बोली)


रोहित :- (गुस्से में) "आप का प्रवचन हो गया हो तो फोन रखिए माता जी!!  सुबह में मिलते हैं आपसे, और हां सुनिए नाश्ते में गरम गरम आलू के पराठे बनवा देना।"


     रोहित की मम्मी ने बिना बात पूरी हुए ही फोन काट दिया। खैर जैसे-तैसे टैक्सी वाले ने ट्रैफिक को मात देकर रोहित को ट्रेन के समय से 7 मिनट पहले स्टेशन पहुंचा दिया। रोहित बड़ी खुशी से टैक्सी वाले को थैंक्स बोल कर उसे ₹100 देकर दौड़ा अपने प्लेटफार्म की ओर। बस सिग्नल होने के 2 मिनट पहले ही रोहित ट्रेन में घुस गया। ट्रेन सीधा उज्जैन से आ रही थी, तो तमाम बाबा बैरागी लोग या फिर तीर्थयात्री ही थे उस थर्ड एसी कोच में। अपनी सीट पर रोहित बाबू जा कर बैठे और चैन की सांस ले ही रहे थे, कि अलका जी को कहां चैन था। फिर फोन आ गया।


अलका जी :- "हां बेटू!!!! ट्रेन मिल गई??"


रोहित :- (थोड़ा मजाक वाले मूड में बोला) "मम्मी आप चिंता ना करो, हमाए इकलौते गोलू मामा कल ही बकरा बनेंगे। काहे से उनके सबसे प्यारे भांजे ट्रेन में बैठ चुके हैं।"


अलका जी :- "तुम बहुत मस्तियाने लगे हो, और थोड़ा हंस लो, अब बस मामा के बाद तुम्हारा नंबर है। सुन रहे हो???"


रोहित :- (थोड़ा चिड़चिड़ाते हुए बोला) "हां मम्मी!!! वैसे यह ख्याल भी बढ़िया है।"


       रोहित ने फ़ट से फोन काट दिया और उधर से अलका जी को लगा कि, हां अब रोहित बाबू शादी के लिए तैयार है। ट्रेन पूरी रफ्तार से दौड़ने लगी थी। रोहित अब आराम से अपनी खिड़की वाली सीट पर बैठकर मोबाइल हाथ में लिए चला रहे थे। बाहर लगभग अंधेरा हो चुका था। थोड़ी ही देर में ट्रेन भोपाल स्टेशन पर रुकी। और कुछ और सवारी रोहित के कोच में भी चढ़ी। रोहित अपने मोबाइल पर व्यस्त थे, तभी एक बड़ी ही तेज तर्रार आवाज उनके कान में गूंजी।


"एक्सक्यूज़ मी"


      रोहित जैसे ही मुड़ा, उसके चेहरे से सारे भाव गायब हो गए। एक टक उसे देखता ही रहा। सांवला सा, मनमोहक सूरत, दुबली पतली कद काठी, सुनहरे बाल, लेकिन आवाज ऐसी कड़क, की ना देखो तो ऐसा लगे, जैसे किसी बड़ी उम्र वाले पुलिस ऑफिसर ने आवाज लगाई हो। रोहित  अभी भी अचंभे में ही था, तब उसने दोबारा कहा।


"हेलो!!!! मैं आपसे ही बोल रहा हूं मिस्टर!!!"


       रोहित एकदम अपनी फॉर्म में वापस आते हुए बोला।


रोहित :- "हां जी बताएं???"


"यह खिड़की वाली सीट मेरी है, तो आप जरा वहां से शिफ्ट हो जाइए।"


      उस लड़के ने एकदम बुलंद और कर्कश आवाज में बोला। रोहित मन ही मन बड़बड़ा रहा था, "भगवान बेचारे के साथ बहुत ही बुरा किए, इतनी भोली सूरत और आवाज से एकदम ही लड़ाकू। लेकिन कुछ भी कहो भैया, है बड़ा भोकाल। देखो कैसे कोच में आते ही हर आदमी का ध्यान अपने पर खींच लीआ। खैर हमें क्या लेना देना।" रोहित सीट पर दूसरे कोने में जाकर दुबक कर बैठ गया। थोड़ी देर में वह लड़का भी अपनी खिड़की वाली सीट पर सेट हो गया, और वह भी अपना मोबाइल हाथ में लेकर कान में हेडफोन लगाकर कुछ सुन रहा था, और साथ में कुछ देख भी रहा था। तब तक उसका फोन बज गया। शायद उसकी मां का फोन था।


"हां मम्मा!!! हम बैठ गए हैं आराम से ट्रेन में। आप बिल्कुल भी चिंता मत करो। हम सुबह कानपुर पहुंच कर आपको फोन करेंगे। बस आप एक बार बुआ जी का एड्रेस मैसेज कर दो, तानिया दीदी को बोलना वह कर देंगी।"


उधर से मां ने शायद बोला होगा बेटा अपना ध्यान रखना। इधर से बेटे ने बोला।


"जी मम्मी!!! आपका सौम्य अब बड़ा हो गया है, इतनी चिंता मत करो।"


    उसकी बातें आसपास बैठे सब लोग सुन रहे थे। रोहित फिर से मन में बड़बड़ाया, "इनको देख लो जरा, परवाह ही नहीं है, आस पास बैठे लोगों की। अब इनका नाम सबको पता है। भैया यह है गजब भौकाल सौम्य साहब।" थोड़ा समय बीता और रोहित को आने लगी नींद। तो सोचा सौम्य जी से कहें, कि सीट खोलें क्या!!!! लेकिन हिम्मत जवाब दे गई। चेहरे पर गुस्सा,  अपनी किताब में मगन और कानों में हेडफोन भी चढ़ाए बैठा था। थोड़ी देर इंतजार के बाद, रोहित भैया वहीं सीट पर बैठे बैठे ही सो गए। जब एक आवाज, चाय गरम चाय!!! कानो में पड़ी, तो रोहित की आंख खुली। देखा गाड़ी किसी स्टेशन पर खड़ी थी। सौम्य भी जाग रहा था। किताब बंद थी और खिड़की के बाहर टुकुर टुकुर निहार रहा था। अब रोहित ने सोचा, की थोड़ी बात की जाए। क्योंकि सौम्य को देखकर लग नहीं रहा था, कि उन्हें कहीं दूर दूर तक नींद आ रही थी। 


रोहित :- (धीरे से कहा) "एक्सक्यूज मी!!!।"



      सौम्य ने रोहित को पलट कर देखा, और उसके चेहरे पर धीरे धीरे गुस्से के भाव वापस आने लगे, उसकी भवैं धीरे धीरे ऊपर चढ़ने लगीं।



 रोहित :- "दरअसल हमें नींद आ रही थी, तो क्या आप.....!!"



       इससे पहले रोहित अपनी बात पूरी कर पाता सौम्य बौखला उठा।


सौम्य :- "नींद आ रही तो सो जाईये, अब क्या मैं आपको लोरी सुनाऊं???"


रोहित :- (मुस्कुरा कर) "अरे नहीं नहीं!!! आपने हमारी पूरी बात नहीं सुनी। हमाई सीट तो यह बीच वाली है, और बिना सुने आप तो हमारी क्लास ही लगा दीए।"


      सौम्य को अपने कहे पर थोड़ी शर्मिंदगी महसूस हुई, तो उसने सॉरी बोला रोहित को। फिर बोला।


सौम्य :- "जी बस अगले स्टेशन तक बैठ जाईये। हम कुछ खाना ले ले और फिर आप सो सकते हैं।"


       अभी करीब रात के 9:00 बज चुके थे, ज्यादातर लोग सो ही गए थे। बस एक आधे ही जागे बैठे थे। अब हम भी चुपचाप बैठ कर अपना मोबाइल निहारने लगे। तब तक गोलू मामा का फोन आ गया, जी हां वही मामा जिनकी कल शादी है।


रोहित के मामा :- (फ़ोन पर) "हेलो रोहित दे बेटा, तुम यार अभी तक आए नहीं। ऐसे कैसे काम चलेगा। यहां सुबह से सब गड़बड़ मची है। यार मामी तुम्हाई चार बार पूछ चुकी हैं, भांजे साहब कहां हैं??"


रोहित :- "अरे मामा बोलने तो दो यार हमें!!! बस गाड़ी में बैठ चुके हैं और कुछ ही घंटों की दूरी है कानपुर से। भला आप की शादी हमाए बिना हो सकती है क्या??  यार कैसी बात कर दिए आप!!! अच्छा और सुनो जरा वहाँ तैयारी सब है ना??? कुछ कमी बसी हो तो हमें बताओ, हम सब जुगाड़ करते हैं।"


मामा :- "यार तुम्हाई मामी कह रही हैं, कि डांस करो कल साथ में और यार हम आज तक कभी डांस नहीं किए। गुरु बताओ जरा कुछ, तुम ही हो जो कुछ कर सकते हो।"


रोहित :- "आप चिंता ना करो कतई। अब आपके परम संकट मोचन कानपुर पधार रहे हैं। डाँस वांस सब निपटा देंगे।"


      रोहित जोर जोर से हंस रहा था, और सौम्य रोहित को घूर रहा था, और मन में सोच रहा था, कि कितना जोर जोर से बात करता है। दिखने में हैंडसम है, लेकिन जुबान से तो एकदम जाहिल ही है। उधर  रोहित का फोन खत्म हुआ, फोन रखते हुए उसने सौम्य की तरफ देखा, और बोला।


रोहित :- "कल हमाए मामा की शादी है कानपुर में। बस उन्हीं का फोन आया था।"


सौम्य :- (थोड़ा हंसते और सरकास्टिक हंसी के साथ) "जी मैंने सुना सब!!! और आप उनके डांस का जुगाड़ कराने वाले हैं।"


    दोनों जोर से हंसने लगे।


रोहित :- "आपको पता है ना सौम्य जी!!! हर चीज का जुगाड़ होता है कनपुरिया के पास।"


सौम्य :- (हंसते हुए) "तो मामा के डांस का जुगाड़ कैसे कर रहे हैं आप???"


रोहित :- (सर खुजाते हुए) "अब बोले हैं तो कुछ तो करना होगा, वैसे आप बुरा ना माने तो आप कुछ सुझाव दीजिये।"


सौम्य :- (हँसते हुए) "अभी तो सब जुगाड़ था आपके पास, अब कहां गया???" (रोहित का निराश चेहरा देखकर) "अच्छा रुकिए मैं आपको कुछ वीडियो दिखाता हूं। कल हमारी भी बुआ जी की बेटी की शादी है कानपुर में। दीदी ने यह डांस तैयार किया है, तो इसमें जो लड़के के स्टेप्स हैं, हो सकता है आपके कुछ काम आए।"


      दोनों सौम्य के मोबाइल पर वीडियो देखने लगे। गाना बज रहा था।


कहते हैं खुदा ने इस जहां में सभी के लिए 

किसी ना किसी को है बनाया हर किसी के लिए 

तेरा मिलना है उस रब का इशारा मानो 

मुझको बनाया तेरे जैसे ही किसी के लिए 

कुछ तो है तुझसे राबता 

कैसे हम जाने हमें क्या पता 

कुछ तो है तुझसे राबता 


      गाना सुनते सुनते हमारे रोहित बाबू भी एकदम यही सोच रहे थे, कि शायद सौम्य का आज यू मिलना भी कोई इत्तेफाक ही नहीं बल्कि ऊपर वाले का इशारा है। उधर सौम्य पूरी तरह से डांस के स्टेप्स का मजा ले रहा था। दोनों ने शांत होकर डांस देखा। रोहित के मन में कुछ अलग ही डांस चल रहा था। खामोशी तोड़ते हुए सौम्य ने कहा।


सौम्य :- "कैसा लगा??? ज्यादा मुश्किल भी नहीं है!!! आपके मामा भी कर सकते हैं।" (रोहित को थोड़ा सा धक्का देते हुए) "कहाँ खो गए आप?? कहीं वहां खुद को तो इमेजिन नहीं कर रहे थे??"


      जोर से हंसते हुए सौम्य इतना अच्छा लग रहा था, कि रोहित से रहा नहीं गया और उसने बड़ी हिम्मत करके कहा।


रोहित :- "सौम्य आप बहुत सुंदर दिखते हैं। आप जब खिलखिला कर हंसते हैं, एकदम कल कल करते झरने की तरह लगते हैं। आपको देख कर पहली नजर में नहीं लगा था कि आप इतना हंसते भी होंगे।"


      रोहित की बात सुनकर सौम्य एकदम शांत हो गया और कुछ देर के लिए खिड़की के बाहर देखने लगा। रोहित को समझ नहीं आया क्या करें??? ऐसा क्या बोल दिया कि सौम्य इतना शांत हो गया। तभी गाड़ी एक स्टेशन पर जाकर रुक गई। रात के करीब 10:30 बज चुके थे। जल्दी से रोहित बाहर गया और दो डब्बे खाने के और एक चाय वाले को साथ लेकर आया। उसने सौम्य की ओर इशारा करते हुए चाय वाले से कहा।


रोहित :- "भैया जरा एक कड़क चाय सर जी को दीजिए तो।"


सौम्य :- "शुक्रिया रोहित जी लेकिन मैं चाय नहीं पीता।"


     रोहित ने चाय वाले से दो कुल्लड़ में चाय ली और चाय वाले को जाने दिया। ट्रेन चल दी थी। सौम्य की नजर चाय के कुल्लड़ पर पड़ी तो रोहित से बोला।


सौम्य :- "दो चाय क्यों???? मैंने तो मना किया था!!"


रोहित :- (बड़ी मासूमियत से) "एक हमाई और एक उनकी!!


      रोहित के चेहरे पर थोड़ी शर्मीली सी मुस्कान थी, सौम्य थोड़ा आश्चर्य भरे भाव से पूछता है।


सौम्य :- "उनकी किसकी??? यहां तो मेरे अलावा और कोई नहीं!! और मैंने तो मना किया था!"


रोहित :- (मुस्कुराते हुए) "यह हमारे काल्पनिक चाय पार्टनर के लिए है, जो है नहीं लेकिन हम चाय अकेले नहीं पीते, तो जब कोई चाय पर साथ नहीं देता, तो हम दूसरा कप सामने रख लेते हैं, उन्हीं से बतिया भी लेते हैं, और दोनों चाय हम खुद ही पी लेते हैं।"


       सौम्य को रोहित की मासूमियत पर हंसी भी आ रही थी और थोड़ा प्यार भी।


सौम्य :- "बड़े जज्बाती  हैं आप रोहित जी।"


रोहित :- (सौम्य की ओर आस भारी निगाहों से देखते हुए) "सौम्य आज भर के लिए हमारे चाय पार्टनर बन जाइए ना। हमें बहुत अच्छा लगेगा।"


सौम्य :- (चाय के कप की ओर हाँथ बढ़ाते हुए) "वैसे मुझे चाय से परहेज नहीं है। बस किन्ही कारणों से चाय पीना बंद कर दिया।"


रोहित :- (हँस कर) "सौम्य आप बुरा ना माने तो एक बात कहें, जैसा आप खुद को दिखाते हैं, वैसे है नहीं।"


सौम्या :- (चाय की चुस्की को बीच मे ही रोकते हुए, कई प्रश्नचिन्ह अपने चेहरे पर लिए) "क्या मतलब??? मैं बनावटी लग रहा हूँ आपको???" 


रोहित :- (मुस्कुरा कर) "देखो आपको चाय कितनी ज्यादा पसंद आई, आपने जैसे ही घूंट को अंदर लिया, तो वह सुकून हमने देखा। और अब आप फिर वापस अपने दिखावटी रूप में आ गए। बुरा मत मानियेगा, हमारा इरादा आपकी जासूसी करने नही था, लेकिन आपकी चोरी पकड़ी गई।"


     सौम्य एकदम निशब्द था, और फिर दोनों ने चाय की चुस्कियां लेते हुए माहौल को थोड़ा बदला। और फिर रोहित पूछने लगा सौम्य के बारे में, सौम्य को और जानने की कोशिश करता है। तो सौम्य बताने लगा, कि वह नागपुर से है, एक सरकारी बैंक में नौकरी करता है। और अभी कुछ दिन पहले ही तबादला हुआ है, यहां भोपाल में। यहां बतौर ब्रांच ऑपरेशन मैनेजर काम कर रहा है। रोहित भी उसे अपने बारे में बताता है, कि वह आई आई एम का अंतिम वर्ष का विद्यार्थि है। अभी कुछ बाहर की यूनिवर्सिटी में एग्जाम दिया है, यदि सेलेक्ट हो गया तो देखेगा। चाय खत्म होते ही सौम्य ने रोहित को थैंक्स बोला।


सौम्य :- रोहित जी दिल से शुक्रिया!!! बड़े दिनों बाद इतनी अच्छी चाय पीने को मिली। और एक अच्छा चाय पार्टनर भी।"


रोहित :- (मुस्कुरा कर) "सौम्य जी हमें भी एकदम परफेक्ट लाइफ पार्टनर सारी सॉरी हमारा मतलब है चाय पार्टनर मिला आज, तो आपका भी शुक्रिया।"


          दोनों ने साथ में खाना खाया और फिर सौम्य ने रोहित से खाने के पैसे पूछे। तो रोहित ने कहा।


रोहित :- "अरे सौम्य जी रहने दीजिएगा। हमें अच्छा नहीं लगेगा अगर आप पैसे देंगे तो।"


सौम्य :- "अच्छा तो मुझे भी नहीं लगेगा अगर आपने पैसे नहीं लिए तो।"


रोहित :- "अगर आप हमसे दोस्ती करें, और अगर आपको मंजूर है, तो फिर 1 दिन कानपुर में मिलकर हमें चाय पिला दीजिएगा।"


सौम्य :- (कुछ सेकेंड शांत रहकर) "चलो मुझ पर उधार रही चाय।"


रोहित :- "यह हुई ना दोस्तों वाली बात।"


        रात के 11:30 बज चुके थे, दोनों की आंखों में नींद नहीं थी। एक बाबा सामने वाली सीट से उठे और उन्हें बाथरूम जाना था, लेकिन पांव में दर्द के कारण ज्यादा चल नहीं पा रहे थे। रोहित ने उनकी मदद की।


रोहित :-  "अरे बाबा अब ऐसी उम्र में काहे अकेले यात्रा करते हो?? किसी को संग में रखा करो।"


        फिर रोहित उन्हें बाथरूम ले जाकर वापस आया। सौम्य रोहित को देखकर बहुत खुश था, उसका इतना हेल्पिंग नेचर उसे बहुत अच्छा लगा। सौम्य ने रोहित को पूछा यदि वह सोना चाहे तो सो सकता है, रोहित ने ना में सर हिला दिया। और फिर सौम्य को भी नींद नहीं आ रही थी। खिड़की से बाहर देखते हुए, कहीं तो किसी पुराने ख्यालों में खोया था। उधर हमारा रोहित सौम्य के ख्यालों में खोया था। कब दोनों की आंख लग गई पता ही नहीं चला।




     आगे का सफर दोनों को कहाँ तक ले जाता है, और क्या कानपुर में दोनों फिर से चाय पर मिल पाते हैं या नहीं। रोहित अपने मन की बातें सौम्य को बता पायेगा या नहीं, और सौम्य का क्या रिएक्शन होगा। ये सभी बातें जानने के लिए बने रहिये रोहित ओर सौम्य के साथ। और अब हम लोग मिलते हैं, कानपुर में।







Thursday, October 8, 2020

वो सफ़र... - लघुकथा

 Hello friends,

                          I am again here to present  a very short story. It's just a thought which came into my mind while I'll traveling. So now I present that thought in the form of a short story. Hope you like it.



       बाहर हो रही चहल कदमी और आवाज़ों से जब मेरी आंख खुली, मैंने बाहर देखा, तो ट्रेन किसी स्टेशन पर रुकी हुई थी। मैंने जब खिड़की से झांककर देखा, तो वह आगरा स्टेशन था। मैंने पास रखी पानी की बोतल को उठाया, तो उसमें पानी खत्म हो चुका था। पानी लेने जाने के लिए जब मैं अपनी सीट से उठने लगा, तो एक आवाज मेरे कानों में सुनाई दी।


"ट्रैन बस चलने ही वाली है!!!!!"


मैंने पलट कर देखा, तो मुझसे उम्र में कुछ ही बड़ा एक लड़का, हाँथो में मोबाइल लिए, मेरे सामने वाली सीट से, मेरी ओर ही देख रहा था। चेहरा तो कुछ जाना पहचाना सा लग रहा था, और बोलने के लहजे से भी झांसी का ही लग रहा था।


"हाँ!!! मैं जल्दी से पानी लेकर आ जाऊंगा। आप please मेरा bag देखते रहिएगा।"


      मैं ट्रेन से उतरा और नल की खोज में थोड़ा आगे की ओर चला गया। नल पर ज्यादा भीड़ तो नहीं थी, लेकिन कुछ लोग हाथ मुंह धो रहे थे, और कुछ अपनी बोतल लेकर पानी भरने का इंतजार कर रहे थे। मैंने भी नल के खाली होने का इंतजार किया, और नल खाली होते ही, जैसे ही अपनी बोतल को नल के नीचे लगाया। ट्रेन ने स्टेशन छोड़ने का सिग्नल दिया। लेकिन पता नही क्यों, मेरा वापस से ट्रेन की ओर जाने का मन ही नही किआ। मैंने बड़े आराम से अपनी पानी की बोतल को भरा, और उधर ट्रैन ने धीरे धीरे स्टेशन को छोड़ते हुए, अपनी रफ्तार बढ़ानी शुरू कर दी। और मैं अपने हाँथो में पानी की बोतल लिए, वहाँ खड़ा, ट्रैन को जाते देखता रहा। कुछ देर वहीं खड़े रहने के बाद, मैंने अपना मुँह धोया, और वहीं पास पड़ी बैंच पर आकर बैठ गया। ट्रैन के जाते ही स्टेशन पर थोड़ी शान्ति सी हो गयी थी। रात के 3 बजे, और प्लेटफार्म नंबर 3 होने के कारण, वहाँ कुछ 2 3 लोग ही मौजूद थे, और वो लोग भी नवंबर की हल्की सर्दी में चादर ओढ़े सो रहे थे। मैं भी बैंच से टिक कर, अपनी आँखें बंद कर के सोच ही रहा था, की अब क्या करना चाहिए, की तभी वही आवाज़ फिर से मेरे कानों में पड़ी।


"इससे अच्छा तो ट्रैन में ही सो जाते!!!"


     मैंने आँखे खोली, तो वही ट्रैन वाला लड़का मेरा bag हाथोँ में लिए, मेरे सामने खड़ा था।


"Sorry आपको मेरी वजह से ये तकलीफ उठानी पड़ी। लेकिन आपको ऐसा करने की कोई जरूरत नही थी।"


"अरे!!!! अब तुमने कहा था कि bag को देखना!!! तो ये bag को कब तक देखता रहता??? ट्रेन से बाहर तुम्हे देखा, तो तुम बुत बने खड़े थे, तुम ट्रैन में नही चढ़े तो मैं तुम्हारा bag लेकर नीचे उतर गया।"


"Thanq so much!!! लेकिन सच में, इस bag के लिए ऐसा करने की कोई भी जरूरत नही थी। इसमे मेरे कुछ कपड़ों के अलावा कुछ भी नही है। और इसकी वजह से आपकी ट्रैन भी छूट गयी।"


(उसी बैंच पर बैठते हुए अपने माथे पर हाँथ पीटते हुए) "वैसे मैं ये कहता हुआ थोड़ा पागल लगूंगा तुम्हे, लेकिन मैं ट्रैन से उतरने से अच्छा, chain pulling कर के ट्रैन रोक भी तो सकता था।"



      उसके ऐसा कहते ही, हम दोनों ही ठहाके लगा कर हँसने लगे। और हँसते हँसते ही मेरी आँखों मे आँसू आ गए, और मेरे होंठों पर बर्फ सी जम गई। और मेरी उदासी भरी शक्ल को देख कर उसने कहा।


"क्या हुआ??? मेरा यहाँ बैठना अच्छा नही लगा?? या फिर ये बैग??? कहो तो मैं और ये बैग, दोनों यहाँ से चले जायें???"


      

        मैंने मुस्कुराते हुए उसकी बातों का जवाब दिया।


"नहीं ऐसा कुछ भी नहीं!! बस मुझे मेरे पापा की याद आ गयी। आखिरी बार उनके साथ ही ऐसे खुलके हँसा था।"


"Hmmmmm और तुम्हे हँसते ही रहना चाहिए, तुम्हारे चेहरे पर हँसी ही अच्छी लगती है, ये उदासी नहीं। और तुम्हारे पापा भी यही चाहेंगे, की तुम हमेशा हँसते रहो।"


"हाँ!!! लेकिन ये कहने के लिए अब वो इस दुनिया में ही नही है।"



    वैसे तो मैं इतनी जल्दी किसी से नही घुलता मिलता हूँ, लेकिन उस अजनबी में पता नही वो कोनसा अपनापन था, जो मैं उससे अपने मन की, अपने हाल की सारी बातें बिना हिचकिचाए कर सकता था। मुझे बचपन से ही अकेले रहने की आदत भी थी, मुझे किसी का भी साथ इतनी जल्दी नही भाता था, लेकिन फिर भी, उस अजनबी से कुछ पलों की ही मुलाकात में, मुझे अपने अब तक के 18 साल के जीवन के हर लम्हों से उसे अवगत कराने में भी कोई झिझक नही थी। अब यूं तो ऐसा कुछ खास नही था मेरा जीवन, जिसके बारे में कोई किस्सा किसी को सुना सकूँ। मैं कक्षा 6 से ही, देहरादून के बोर्डिंग स्कूल में पढ़ाई के लिए चला गया था, और अभी भी वहीं के एक कॉलेज में फर्स्ट ईयर में एडमिशन लिया था। पापा की तबियत खराब रहने की वजह से, पिछले 10 दिनों से झाँसी में ही था। परिवार के नाम पर मेरे पास सिर्फ मेरे पापा ही थे। वही मेरा सारा परिवार थे। मेरी मां मुझे जन्म देते वक्त ही इस दुनिया को अलविदा कह गई थी। और मेरे पापा ने ही मुझे पाल पोस कर इस लायक बनाया था, कि मैं आज उनके बिना भी, इस दुनिया में अकेले रहने की कोशिश कर पा रहा था। कहने को तो दिल्ली में मेरा ननिहाल भी था, लेकिन मेरी माँ के द्वारा, एक अनाथ लड़के के संग प्रेम विवाह करने की वजह से, उन लोगो ने मेरे माँ पापा से इन 21 सालों में कोई संबंध नही रखा था। मेरे माँ पापा ने, माँ के घरवालों के विरुद्ध जा कर, घर से भागकर, दिल्ली से दूर, यहाँ झांसी में अपनी एक छोटी सी दुनियाँ बसा ली थी। उनकी शादी के 3 सालों के बाद मेरा जन्म हुआ, और मैंने इस दुनियाँ में आते ही, अपने पापा का इकलौता परिवार, उनका प्यार ही उनसे छीन लिया। लेकिन सभी परेशानियों के बाद भी, मेरे पापा ने मुझे बड़े ही लाड़, प्यार से, पाला पोसा। मेरे अच्छे भविष्य की कामना में, उन्होंने मुझे खुद से दूर भेजने में भी, जरा सी भी झिझक नही दिखाई, और मुझे खुद से दूर भी भेज दिया था। रोज टेलीफोन पर बात हो जाया करती थी, स्कूल की छुट्टियों में मैं झांसी आ जाया करता था। या साल के बीच में कभी पापा मुझसे मिलने देहरादून आ जाया करते थे। यह सफर कुछ साल ऐसा ही चलता रहा था। लेकिन जब कुछ दिनों पहले पापा का मेरे पास फोन आया, और उन्होंने मुझे अपने पास आने को कहा। तो मुझे नहीं पता था, कि यह उनका आखिरी फोन होगा, और यह कुछ दिन मेरे पापा के साथ बिताए आखिरी दिनों में से एक हो जाएंगे।


      मैं अपनी सोच में कुछ यूं डूब गया था, जैसे मानो मैं भूल ही गया था, कि मैं आगरा रेल्वे स्टेशन के, प्लेटफार्म नंबर 3 पर पड़ी उस बैंच पर, किसी अजनबी के साथ बैठा हूँ। मेरी आँखों के सामने, पापा के साथ बिताए प्यारे लम्हों का सफर, किसी तेज रफ्तार से दौड़ती ट्रैन की तरह गुजर रहा था। मेरी पलकें फिर उसी आवाज के साथ झपकी।


"कहाँ जा रहे थे तुम??? वैसे मैंने अपना नाम नही बताया, मैं मानव हूँ।"


"मानव!!!!! मैं विनय।"


मानव :- "hmmmmm.... मानव याने इंसान का बच्चा!!!! पुजारी बाबा ने मेरा नाम मानव ही रख दिया, जब मैं उन्हें मंदिर की सीढ़ियों पर मिला।"


विनय :- (मुस्कुरा कर) "आप भी अनाथ, और मैं भी!!!"


मानव :- "जिसका कोई नही होता उसका भगवान होता है। या वो किसी ना किसी को आपके लिए भेज ही देता है। जैसे मुझे भेज दिया, ये bag लेकर, तुम्हारे पास!!!"


विनय :- (हँसते हुए) "आप बातें बड़ी अच्छी बना लेते हो।"


मानव :- "hmmmmm मार्केटिंग जॉब में हूँ, बातें बनाने के ही पैसे मिलते हैं। वैसे बताया नही तुमने??? कहाँ जा रहे थे??"


विनय :- "दिल्ली!!!! लेकिन जाऊं या नहीं, समझ नही पा रहा।"


मानव :- "मतलब???"


विनय :- "दरअसल मेरे पापा की यही आखिरी इक्छा थी!!! कि अगर उन्हें कुछ हो जाता है, तो मैं दिल्ली अपने ननिहाल चला जाऊं।"


मानव :- "तो फिर??? अपने ननिहाल जाने के लिए इतना क्या सोचना???"


विनय :- "इतना आसान नही है सबकुछ!!!"


मानव :- "मैं भी दिल्ली ही जा रहा हूँ। मेरे साथ चलो, मैं छोड़ दूंगा तुम्हें वहाँ!"


विनय :- "नहीं!!! नहीं!!!! वैसे ही मेरी वजह से आपको बहुत परेशानी हुई है, अब और ज्यादा परेशान होने की जरूरत नहीं है।"


मानव :- "मैंने कहा ना, शायद भगवान ने ही मुझे तुम्हारे लिए यहाँ भेजा हो। चलो!!! Main station पर चल कर पता करते हैं, अगली ट्रैन कब है!!!"



       मैं उसकी कोई मदद लेना तो नहीं चाहता था, लेकिन उसके व्यवहार से, उसकी बातों से मुझे अपनेपन का वो एहसास हो रहा था, जो मैंने अपने पापा के अलावा किसी और से कभी महसूस ही नही किआ था। और उसी भाव के प्रति विवष होकर, मैं भी बिना कुछ बोले, चुप चाप उसके पीछे पीछे चलता हुआ, अगरा के 1 नंबर प्लेटफार्म से बाहर निकर कर, पूछताछ खिड़की पर जा पहुंचा। वहाँ जा कर पता चला कि कुछ ही देर में एक ट्रेन आएगी, जो नई दिल्ली की ओर जाएगी। पर मुझे तो दिल्ली सराय रोहिल्ला स्टेशन पर जाना था, और दिल्ली शहर मेरे लिए बिल्कुल अनजान था। इससे पहले, मैंने झांसी और देहरादून के अलावा कोई और शहर देखा तक नही था, यहां तक कि, इन दोनों शहरों से भी मैं अभी तक लगभग अनजान ही था। तो दिल्ली जैसे महानगर में जाकर, उस घर का पता खोजना, जहाँ शायद मेरा इंतज़ार भी नही हो रहा हो, मेरे लिए बहुत ही मुश्किल होने वाला था। इसके बारे में सोचकर ही, मेरे चेहरे पर आई शिकन को भांपते हुए, मानव ने कहा।



मानव :- "ऐसा करते हैं, पीछे आने वाली ट्रेन से ही निकल चलते है। नही तो सुबह तक का इंतज़ार करना पड़ेगा। मैं नई दिल्ली से तुम्हे तुम्हारे ननिहाल भी छोड़ दूंगा, उसकी चिंता मत करना तुम।"



      मानव के कहे शब्दों का असली भाव, मैं अच्छे से समझ सकता था। एक अनाथ के लिए इतना कह भर देना ही, बहुत मददगार होता है, की "मैं हूं तुम्हारे साथ"!!!!! लेकिन मानव भी तो इस परेशानी में मेरी वजह से ही फसा था। अब उसकी और मदद लेने के बारे में सोचने से ही, मुझे उसके लिए बिल्कुल अच्छा नही लग रहा था।


विनय :- "नहीं मानव!!! मेरी वजह से ही तो आपको इतनी परेशानी हुई है, अब और परेशानी उठाओगे, तो मुझे बिल्कुल अच्छा नही लगेगा। हम चलते हैं नई दिल्ली, मैं चला जाऊंगा वहां से।"



       हम दोनों अगली ट्रैन से दिल्ली के लिए निकल गए। सुबह के 4 बज गए थे। ट्रैन के अंदर सभी लोग सो रहे थे, और कुछ लोग मथुरा आने का इंतेज़ार कर रहे थे। हम लोगों को बड़ी मुश्किल से, बैठने को जगह मिल तो गयी थी, लेकिन उतनी सी जगह में, एक ही व्यक्ति अच्छे से बैठ सकता था। मानव ने मुझे वहां बिठाया और खुद मेरे पास ही खड़ा हो गया। मैं मानव जैसे व्यक्ति को देख कर बहुत स्तब्ध था। आज के ज़माने में जहां सब पहले अपने बारे में सोचते है, और अपनी सुख सुविधाओं को प्राथमिकता देते हैं। उस समय मे, मैं जबसे मानव से मिला था, तबसे ही वो, मेरे लिए हर वो प्रयत्न कर रहा था, जैसे, मैं उसका कोई अपना ही हूँ। कुछ ही देर में, मैंने वहां थोड़ी सी जगह और बनाई, और मानव को भी साथ बैठने का इशारा किया। लेकिन उसने ना में सर हिलाया, और अपनी ही जगह पर खड़ा रहा। लेकिन मैंने उसका हाँथ पकड़ कर अपनी ओर खींचा, और उसे अपने पास ही बैठा लिया। मानव भी मेरी ओर देखकर मुस्कुराया और ठीक से व्यवस्थित होकर बैठ गया। कुछ देर में मथुरा स्टेशन भी आ गया, और हमे थोड़ा अच्छे से बैठने की जगह भी मिल गयी। रात भर जागने की वजह से हम दोनों को ही पलकें नींद से भरी होने लगी थी। और ही कुछ ही देर में, मानव नींद में झोंके लेने लगा और उसका सर इधर उधर गिरने लगा। मैंने मानव का सर सम्भालते हुए अपने कंधे पर रखा, और मानव मेरे कंधे के सहारे, गहरी झपकी लेने लगा। उस वक़्त पहली बार, मैंने मानव के चेहरे को इतने गौर से देखा था। वो सोते हुए बहुत ही मासूम लग रहा था। ट्रैन की खिड़की से आते हवा के झोंको में, उसके माथे पर थपकियाँ देते उसके बाल, उसकी आँखों पर चादर सी बिछी घनी पलकें, और उन पलकों पर पहरा देती, उसकी काली घनी भावैं। उसके चेहरे पर, उसकी वयस्कता की पहचान देती हल्की हल्की दाड़ी मूंछे, और उनमे घिरे, गुलाब सी पंखुड़ियों से उसके होंठ। और उसके चेहरे की शोभा बढ़ाती उसकी वो नुकीली नाक। उसके चेहरे को निहारते हुए, मैं एक पल को तो भूल ही गया था, की मैं कहाँ हूँ, और कहाँ जा रहा हूँ। लेकिन इस शारीरक सुंदरता से कहीं ज्यादा मोहक था, मानव का व्यक्तित्व, उसके सहयोग करने का व्यवहार। मानव का आंकलन करने मे कब समय बिता, मुझे पता ही नही चला, और मानो पलक झपकते ही नई दिल्ली रेलवे स्टेशन भी आ गया। मैने मानव को उठाया, और हम दोनों स्टेशन से बाहर आ कर, टमटम में बैठ, दिल्ली सराय रोहिल्ला के लिए निकल गए। 



      कुछ ही देर में हम पापा द्वारा बताए गए पते पर पहुँच गए थे। लेकिन उस घर के दरवाजे को खटखटाने की मेरी हिम्मत नहीं हो रही थी। मानव के बहुत समझाने के बाद मैंने उस घर की डोर बेल बजाई, और कुछ ही देर में लगभग मेरे पापा की उम्र का ही एक व्यक्ति दरवाजे के उस पार खड़ा हुआ था।


"जी कहिये!!!"


विनय :- (हिचकिचाते हुए) "जी मैं विनय!! मीरा और रकेश का बेटा!!!"


"कौन???"


विनय :- "मीरा शुक्ला और राकेश कुमार....!!!"


     मेरे द्वारा लिए गए नामों को सुनकर, सामने खड़ा वह इंसान कुछ देर तो चुपचाप मुझे टकटकी लगाए देखता रहा। और फिर उसने मुझसे कहा।


"तुम किसी गलत पते पर आ गए हो, यहाँ इन नामों को कोई नही जानता।"


     इतना कहकर, वो दरवाजा बंद ही करने वाले थे, की मानव ने दरवाजे को पकड़ते हुए, उनसे कहा।


मानव :- "कम से कम एक बार उसकी पूरी बात तो सुन लीजिए।"


"उन गिरे हुए लोगों के नाम सुनकर ही मैं ये दरवाजा बंद कर रहा हूँ।"


विनय :- "आपको नही मुझसे बात करनी है तो मत कीजिये, लेकिन मेरे माँ पापा के लिए बुरा बोलने की कोई जरूरत नही है।"


"बुरा???? जो मीरा ने हम लोगों के साथ किआ है, उसके हिसाब से तो मैंने अभी तक कुछ कहना शुरू भी नही किआ है। तुम्हे यहाँ भेज कर अगर वो लोग ये सोच रहे हैं, की हम लोग उन्हें माफ कर देंगे तो जाकर कह देना उन दोनों से, ये दरवाजे वो खुद हमेशा के लिए, खुद के लिए, बन्द करके गयी थी, और ये हमेशा उसके लिए बंद ही रहेंगे।"


विनय :- "वो दोनों ही अब इस दुनिया मे नही हैं। माँ तो मेरे जन्म के वक़्त ही हमे अलविदा कह गईं थीं, और पापा ने भी कुछ दिनों पहले हमेशा के लिए अपनी आंखें मूंद लीं।"


"हमारे लिए तो वो उस दिन ही मर गयी थी, जिस दिन उसने हमारी खुशियों में आग लगा कर, तुम्हारे बाप की दुनिया सजाने के फैसला लिया था। अब हमें ना उनसे कोई मतलब है, और ना ही तुमसे।"



     इन जली कटी बातों के साथ ही, उन्होंने दरवाज़ा बन्द कर लिया। पारिवारिक सहारे के नाम पर, वो घर ही मेरा आखिरी सहारा था। पापा ने सिर्फ इस उम्मीद से मुझे यहाँ आने को कहा था, की शायद ये लोग इतने सालों की नाराज़गी भुला कर, मुझे अपना लेंगे, और मेरे अकेलेपन को बाँट लेंगे। आर्थिक दृष्टि से ना सही, लेकिन मानसिक तौर पर, इस कच्ची उम्र में, मुझे सहारे की अत्यंत आवश्यकता थी। उसी को भांपते हुए, पापा ने मुझे यहाँ दिल्ली आने को भी कहा था। लेकिन शायद नियति को मेरा अकेला ही इस दुनिया मे जीना कुबूल था। आँखों मे आँसू, और चेहरे पर उदासी लिए मैं वहाँ से चलने लगा। कहाँ जाना है, क्या करना है, इस बात का तो कोई इल्म ही था, लेकिन उस बन्द दरवाजे के सामने नही खड़ा रहना चाहता था। इन सब में, मैं एक बार फ़िर मानव के बारे में भूल चुका था। और उसने फिर मेरा हाँथ पकड़ कर, खुद की मौजूदगी का एहसास करवाया।



मानव :- "कहाँ जा रहे हो अब???"


विनय :- "नहीं पता, शायद वापस अपने घर झाँसी चला जाऊं।"


मानव :- "चलो मैं साथ चलता हूँ।"


विनय :- "नहीं मानव!!!! आपका और मेरा साथ बस यहीं तक का था। मेरा इतना साथ देने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया। अब आगे का सफर मुझे अकेले ही तय करना है।"


मानव :- "मैं तुम्हे कुछ बताना, चाहता हूँ। मैं ये सब पहले ही बता देना चाहता था, लेकिन नही समझ पा रहा था कि तुमसे ये बात कैसे करूँ। मुझे पाला पोसा जरूर पुजारी बाबा ने है, लेकिन जीवन जीने के लायक तुम्हारे पिता, राकेश चाचा ने ही बनाया है। वे ही पुजारी बाबा को मेरी पढ़ाई लिखाई के लिए पैसे दिया करते थे। और वे तो मुझे भी देहरादून भेजना चाहते थे, तुम्हारे साथ, लेकिन पुजारी बाबा ने मुझे नही जाने दिया। राकेश चाचा मेरे लिए भगवान स्वरूप थे। शायद वे खुद अनाथ थे, इसलिए मेरे जीवन की कठिनाइयों को अच्छे से समझते थे, और हर पल मेरा साथ देते थे। सिर्फ उन्हीं की वजह से मैं आज अच्छे से अपना जीवन यापन कर पा रहा हूँ। नहीं तो पता नही कहां ,क्या, संघर्ष कर रहा होता।"


विनय :- (आश्चर्य से) "तो ये सब बातें आपने मुझे पहले क्यों नही बताई???"


मानव :- "क्या बताता?? जिस देवता ने मेरी ज़िंदगी सँवारी, उसके अंतिम समय मे मैं वहां नही था, और जब तुम अकेले हो, तब मैं तुम्हारा साथ देने के लिए आ गया हूँ!!! लोग और शायद तुम भी, मेरी नियत पर शक करने लगते!!!"


विनय :- "आप साफ और नेक दिल इंसान हो मानव!!! आपको ऐसा सोचने की कोई जरूरत नही है।"


मानव :- "मैं अपनी नौकरी के काम से बंगलोर गया हुआ था, और पुजारी बाबा ने भी राकेश चाचा की खबर मुझे नही दी, की कही मैं नौकरी छोड़ कर ही ना भाग आऊं। वो तो जब मैं अपने एक दोस्त से फ़ोन पर बात कर रहा था, तब उसने मुझे बताया कि, राकेश चाचा का कुछ दिनों पहले स्वर्गवास हो गया। ये सुनते ही मैं फ़ौरन वह से झांसी के लिए निकल दिया। और जब मैं झांसी स्टेशन पर उतरा, तो मैंने तुम्हें वहां देखा। और फिर तुम्हे देखकर मुझे तुम्हे अकेले जाने देने का मन ही नही हुआ, तो मैं तुम्हारे साथ ही चल दिया।"



     मानव की आंखों की नमी और उसके चेहरे के भाव, उसके द्वारा कहे गए एक-एक शब्द की सत्यता का प्रमाण स्वयं दे रहे थे। मैंने उसके द्वारा कही गई सभी बातों को स्वीकार कर, उसे अपने गले से लगा लिया।



मानव :- "मैं सच मे ये सब बात तुमसे छुपना नही चाहता था, लेकिन जब ट्रेन में तुमने मुझे पहचाना ही नहीं, तो मुझे समझ ही नही आया कि मैं ये सब कैसे बताऊ तुम्हे!!!"


विनय :- (मानव को गले से लगाये हुए ही) "कैसे पहचानता??? मैन आपको कभी देखा ही नहीं!!!"


मानव :- "तुम्हें याद नही है, हम बचपन मे साथ खेला करते थे। वो तो जबसे तुम देहरादून गए हो, तबसे ही नही मिले हम। और जब तुम गर्मियों की छुट्टियों में झांसी आते थे, तो पुजारी बाबा मुझे गर्मियों की छुट्टियों में मथुरा भेज दिया करते थे। पंडिताई सीखने के लिए।"


विनय :- (मानव से दूर हटकर, विनय को मुस्कुरा कर देखते हुए) "अच्छा तो आप पार्ट टाइम पंडित भी हो!!!"


मानव :- (मुस्कुराकर) "हाँ थोड़ा बहुत!!! (विनय का हाँथ पकड़ते हुए) "विनय मैं एक बात तुम्हे सच्चे दिल से कहना चाहता हूं, तुम्हे कभी भी खुद को अकेला समझने की कोई जरूरत नही है। मैं साये की तरह हमेशा तुम्हारे साथ रहूंगा। हाँ, मैं राकेश चाचा की कमी कभी दूर नही कर सकता, और ना ही मैं कभी उनकी जगह लेने की कोशिश करूंगा, लेकिन मैं अपने साथ से, अपनी एक अलग जगह तुम्हारे जीवन मे जरूर बनाये रखूंगा, और हमेशा तुम्हारा साथ निभाउंगा। और मैं ऐसा, राकेश चाचा के एहसानों के दबाव में नही कह रहा हूँ, और ना ही मैं राकेश चाचा के साथ को एहसान मानता हूं। मैं तुम्हारा साथ सिर्फ इसलिए दूंगा, क्योंकि बचपन से ही मेरे दिल मे तुम्हारे लिए एक खास जगह है, और उस जगह में, तुम्हारे देहरादून जाने के बाद भी सिर्फ इजाफा ही हुआ है।"



     इस वक़्त मैं मानव की आँखों मे एक अटूट विश्वास की चमक को साफ साफ देख सकता था। मानव के चेहरे का वो तेज, अग्नि को साक्षी मान कर ली जा रही शपथ के सापेक्ष ही था। और मैं वहाँ खड़ा खड़ा, मानव की आँखों की गहराईयों में डूबता ही जा रहा था। मेरे इस सम्मोहन को मानव की आवाज ने ही भंग किआ।


मानव :- "चले घर!!!! अभी वो सफ़र भी बाक़ी है।"



      ये है मेरे वो सफ़र की कहानी, जिसकी शुरुआत तो परिवार की तलाश में हुई थी, लेकिन अंत एक हमसफ़र के मिलने के साथ ही हुआ। एक ऐसा हमसफ़र जो कि सफ़र में, मेरी छोटी से छोटी सुख सुविधाओं का ख़्याल, खुद से भी ज्यादा रखता था। आगे इस हमसफ़र का मेरे जीवन मे कितना और क्या सहयोग रहता है, फिर कभी किसी कहानी के जरिये जरूर आपसे सांझा करूँगा।

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Lots of Love 

Yuvraaj ❤️




















    

Shadi.Com Part - III

Hello friends,                      If you directly landed on this page than I must tell you, please read it's first two parts, than you...